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६४ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
मनोरचना का पहला प्रकार है— अवदमन । एक सामाजिक प्राणी हर कोई काम नहीं कर सकता। समाज में रहने वाला, सामाजिक जीवन जीने वाला व्यक्ति चाहे जैसा नहीं कर सकता । व्यक्ति के मन में बहुत सारी तरंगें पैदा होती हैं, अनेक प्रकार की कल्पनाएं और विचार पैदा होते हैं । किन्तु जो मन में आता है, उसे वह करता नहीं है । व्यक्ति के मन में जो आए उसे वह करता चला जाए तो वह सामाजिक दृष्टि से पागल कहलाएगा। सामाजिक व्यक्ति में सहज नियंत्रण होता है। समाज का मतलब है नियंत्रण । समाज बना, साथ-साथ नियंत्रण ने भी जन्म लिया । एक व्यक्ति कुलीन परिवार का है, उस परिवार में शराब को हेय माना जाता है। व्यक्ति के मन में विचार आया- मुझे शराब पीना है । मन में यह भाव आ गया किन्तु वह शराब पी नहीं सकता । वह सोचता है - घर का अमुक सदस्य देख रहा है, अमुक व्यक्ति व्यक्ति देख रहा हैं इसलिए शराब पीना उचित नहीं है। मन में जो भाव जगा, आकांक्षा पैदा हुई, वह पूरी नहीं हुई । वह अकेला नहीं था, उसके साथ दूसरा व्यक्ति था इसलिए उसे अपनी आकांक्षा को दबाना पड़ा। उसकी आकांक्षा समाप्त नहीं हुई । वह दमित भावना, दमित आकांक्षा स्थूल चेतना से हटकर अवचेतन जगत् में चली जाती है, अवदमित हो जाती है । यह है अवदमन । एक वृत्ति का अवदमन हो गया, इसका मतलब है - वह उस समय उस बुराई से बच गया। बचने का निमित्त चाहे कुछ भी बना किन्तु बचाव हो गया ।
नियंत्रण: एक उपाय
एक लड़का बुराई में चला गया । पिता ने बहुत उपाय किए किन्तु कोई परिवर्तन नहीं आया । एक बार गांव में एक मुनि आए । पिता अपने लड़के को मुनि के पास ले गया । उसकी सारी बात मुनिजी को बता दी । मुनि ने लड़के से कहा – तुम बुराइयां छोड़ दो।
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लड़का बोला- मैं असमर्थ हूं । मैं नहीं छोड़ सकता ।
मुनि बड़े मनोवैज्ञानिक थे । उन्होंने सारी स्थिति को देखकर सोचा- इसे ज्यादा कहना अच्छा नहीं है और यह सीधे रास्ते से बुराइयां नहीं छोडेगा । मुनि बोले- 'तुम शराब पीना नही छोड़ सकते, जुआ नहीं छोड़े सकते, वेश्यागमन नहीं छोड़ सकते पर एक बात तो मान सकते हो ।'
'आप क्या कहना चाहते हैं ?'
'क्या तुम झूठ बोलना छोड़ सकते हो ?'
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