Book Title: Mukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 102
________________ १०० / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य मानता है- प्रत्यक्ष प्रमाण । वह केवल मानस प्रत्यक्ष, इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही स्वीकार करता है। उसके सामने दूसरा कोई प्रमाण नहीं है । चार्वाक दर्शन में न आत्मा और परमात्मा का स्वीकार है, न पुनर्जन्म और कर्म का स्वीकार है, न स्वर्ग-नरक और मोक्ष का स्वीकार है । ये सारी चीजें इन्द्रियों के द्वारा दिखाई नहीं देतीं इसलिए इनकी स्वीकृति चार्वाक दर्शन में नहीं हो सकती । इन्द्रिय प्रत्यक्ष वाला सारा निर्णय इन्द्रियों के आधार पर करता है । I प्रमाण की श्रृंखला : इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आगम तक नास्तिक मत में, चार्वाक दर्शन में धर्म कोई आवश्यक तत्त्व नहीं है और उसमें धर्म का प्रयोजन भी नहीं है। धर्म का प्रयोजन है मोक्ष और बंधन मुक्ति । नास्तिक के मन में न मोक्ष का प्रश्न है और न बंधन मुक्ति का प्रश्न है इसलिए उसमें धर्म का प्रश्न भी नहीं हो सकता। जहां केवल इन्द्रिय प्रत्यक्ष का स्वीकार हैं वहां धर्म का आदि-बिन्दु है ही नहीं । उसके लिए धर्म अर्थहीन है । जिन दार्शनिकों ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आगे प्रमाण माना, उन्होंने प्रत्यक्ष के साथ अनुमान को भी प्रमाण माना । अनुमान को प्रमाण मानने से दर्शन की धारा बहुत लम्बी बन जाती है। जो इन्द्रियों से जाना जाता है, अनुमान के द्वारा उसका भी बहुत विकास हो जाता है । अनुमान से बहुत सारे नियमों का अध्ययन किया जाता है, अनेक नियम बना लिए जाते हैं, व्याप्ति और संबंध की योजना की जाती है। उससे भी आगे एक प्रमाण है— आगम । आगम का मतलब है— इन्द्रियातीत प्रत्यक्ष का ज्ञान। जिसने इन्द्रियातीत ज्ञान से जाना, वह आगम बन गया । इन्द्रिय चेतना : चिन्तन का कोण दो धाराएं बहुत स्पष्ट हैं-- एक इन्द्रिय ज्ञान की धारा और दूसरी इन्द्रियातीत ज्ञान की धारा । जो केवल इन्द्रियों के स्तर पर जीने वाले हैं, उनका चिन्तन एक प्रकार का होगा । उनके चिन्तन का उत्तराध्ययन में बहुत सुन्दर चित्रण मिलता है— जे गिद्धा कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई । न मे दिट्ठे परे लोए, चक्खू दिट्ठा इमा रई ॥ व्यक्ति इन्द्रियों की सीमा में जीता है, कामभोगों में आसक्त है, वह कोई ऐसा काम करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए और यदि कोई व्यक्ति उसे कहता है— भाई ! तुम कितना बुरा काम काम करते हो ! इसका आगे क्या फल होगा ? अगले जन्म में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org


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