Book Title: Mukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 137
________________ आवश्यक है भोग का संयम | १३५ वाले नहीं थे, कोरा वैराग्य था, त्याग था, ऐसा होना संभव नहीं है। यह सचाई है, अतीत में भोग रहा है, प्रबल भोगवाद रहा है। प्रश्न है--आज के युग को ही यह दोष क्यों दिया जा रहा है ? क्यों आरोपण किया जा रहा है कि यह भोगवादी युग है ? इसका कारण क्या है? इसका भी एक कारण है। शब्द का कोई भी प्रयोग अकारण नहीं होता। प्राचीन काल में भी भोग था। जब से मनुष्य है तब से भोग है। पहले भोग था किन्तु युग भोगवादी नहीं था। उस समय पर्याप्त अंकुश था, नियंत्रण था। धारणाएं भिन्न थीं। संयम का वातावरण था। इन दो शताब्दियों में, मुख्यत: इस शताब्दी में भोग के बारे में धारणाएं बदल गईं । जब धारणा बदलती है, दृष्टिकोण बदलता है, युग का नाम भी बदल जाता है। पुराना युग भोग का होने पर भी भोगवादी नहीं कहलाया, क्योंकि भोग को एक विवशता माना गया, अनावरणीय माना गया। भोग : अभोग भोग के संदर्भ में एक स्थिति है अभोग की। कोई आदमी उसका प्रयोग ही नहीं करता। व्यक्ति ने उपवास किया, अभोग हो गया। खाया ही नहीं, त्याग हो गया। भोग के संदर्भ में तीन बातों पर बार-बार ध्यान देना चाहिए। पहली बातभोग के पीछे आसक्ति की मात्रा कितनी है? दूसरी बात है— भोग की मात्रा कितनी है? तीसरी बात है-आदमी जो भोग करता है, शरीर की आवश्यकता की पूर्ति करता है, उसके पीछे धारणा क्या है ? दृष्टिकोण कैसा है ? आसक्तेः कियती मात्रा, मात्रा भोगस्य कीदृशी। दृष्टिकोण: किंप्रकारः, भोगे चिन्त्यमिदं मुहुः ॥ भोगवाद : परिणाम ___आज भोग के बारे में दृष्टिकोण बदल गया। भोग के साथ जो भोगातीत वेतना की एक अवधारणा थी, वह आज नहीं है। जहां भोग है, वहां उसके साथ भोगातीत चेतना भी होनी चाहिए । आज यह दृष्टिकोण ही बदल गया, मूल दृष्टि ही नहीं रही, केवल भोगवाद चल रहा है। उच्छंखल भोगवाद, उन्मुक्त भोगवाद के सेवाय कुछ लगता ही नहीं है। इसका परिणाम है, आज बीमारियां बहुत बढ़ गई हैं। अगर भोग के साथ भोगातीत चेतना का विकास होता तो इतनी बीमारियां नहीं बढ़तीं। यह आज का एक विकट प्रश्न है। बहत बार डॉक्टर भी कहते हैं, इतने अस्पताल बढ़ते जा रहे हैं। उन सब में मरीजों की भीड़ है। कहीं भी स्थान खाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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