Book Title: Mukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 114
________________ ११२ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य पटुता पूर्वक प्रयोग करना, इस स्वर का समर्थन किया गया तो दूसरी ओर इन्द्रियों को दुश्मन और चोर भी कहा गया, अवांछनीय और हेय भी बतलाया गया। इन दोनों के बीच में भेद-रेखा खींचना बहुत कठिन है । अध्यात्म के आचार्यों ने इनके बीच एक भेद-रेखा खींची है। उनका कथन है-जहां-जहां इन्द्रियों के साथ मूर्छा जुड़ जाती है, वहां इंद्रियों को चोर, शत्रु और हेय कहा जा सकता है और जहां यह मूर्छा न जुड़े, कोरी ज्ञान की धारा रहे वहां इन्द्रियां बहुत उपादेय हैं । ज्ञान उपादेय है किंतु यदि ज्ञान के साथ मूर्छा का योग बनता है तो ज्ञान भी हेय बन जाता है । ये दोनों दृष्टिकोण बहुत साफ होने चाहिए। संयम करना है मूर्छा का। इन्द्रिय में जो मूर्छा पैदा हो जाए, उसका संयम करना आवश्यक है। इन्द्रिय की मूर्छा आदमी को बीमार बना देती है। अगर व्यक्ति को शरीर से स्वस्थ रहना है तो उसे इंद्रिय-संयम करना ही होगा। कोई आदमी श्रावक बने या न बने, साधु बने या न बने पर जो स्वस्थ रहना चाहता है, उसे एक सीमा तक इन्द्रियों का संयम करना ही होगा। उसके बिना स्वस्थ नहीं रहा जा सकता। जहां इन्द्रिय का संयम नहीं होता वहां समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इंद्रिय-असंयम का क्या परिणाम होता है, इसे जैन आगमों में एक कथा के द्वारा बहुत सुन्दर तरीके से समझाया गया है। असंयम का परिणाम ___एक राजा बीमार हो गया। बहुत इलाज कराए गए किन्तु राजा ठीक नहीं हुआ। एक पुराना अनुभवी वैद्य आया। उसने राजा को देखा और रोग के मूल को पकड़ लिया। वैद्य ने कहा-महाराज ! मैं आपकी चिकित्सा कर सकता हूं पर मेरी एक शर्त माननी होगी । मैं कहूंगा, वह काम आपको करना पडेगा। राजा ने कहा-आप जैसा कहेंगे मैं वैसा करूंगा। वैद्यजी की दवा से राजा स्वस्थ हो गया । वैद्य का काम पूरा हो गया। उसने कहा-महाराज ! अब मैं जा रहा हूं। आप स्वस्थ हो गए हैं। आनन्द से रहें, पर पथ्य का पालन करना पड़ेगा। 'कहिए, आपका पथ्य कौन-सा है ?' 'आपको जीवन भर आम नहीं खाना है।' राजा आम का बड़ा शौकीन था। बड़ी कठिनाई हो गई। राजा बोला'वैद्यजी ! आपने बड़ा कड़ा पथ्य बतलाया।' 'इसका पालन आपको करना होगा।' 'प्रतिदिन कितने आम खा सकता हूं?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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