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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
दादाश्री : आप ही आये हैं न, नहीं ? यदि पैर दुखते हों तब भी आप आयेंगे?
प्रश्नकर्ता : मेरी खुद की इच्छा थी आने की, इसलिए आया हूँ।
दादाश्री : हाँ, इच्छा थी आपकी, इसलिए आये। पर यह पैर आदि सब ठीक थे तभी आ पाये न ? ठीक नहीं होते तो ?
प्रश्नकर्ता : तब तो नहीं आ पाता, ठीक बात है।
दादाश्री : यानी आप अकेले आ पाते हैं ? जैसे एक आदमी रथ में बैठकर यहाँ पर आया और कहे, 'मैं आया, मैं आया।' तब हम पूछे, 'यह आपके पैर को तो पैरेलीसिस हआ है, तो आप आये कैसे ?' तब वह कहे, 'रथ में आया। पर मैं ही आया, मैं ही आया।' 'अरे! मगर रथ आया कि आप आये?' तब वह कहें, 'रथ आया।' फिर मैं कहूँ कि, 'रथ आया कि बैल आये?'
प्रश्नकर्ता : समझाइये।
दादाश्री : इस संसार में कोई मनुष्य संडास जाने की भी स्वतंत्र सत्तावाला जन्मा नहीं है। संडास जाने की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है किसीकी, फिर और कौन सी सत्ता होगी? यह तो, जहाँ तक आपकी मरज़ी के अनुसार थोड़ा बहुत होता है, तो मन में मान लेते हैं कि मेरे से ही होता है सब कुछ। कभी जब अटके न, तब पता चले।
मैंने फोरिन रिटर्न डॉक्टरों को यहाँ बड़ौदा में बुलाया था, दसबारह जनों को। उनसे मैंने कहा, 'संडास जाने की स्वतंत्र शक्ति आपकी नहीं है।' इस पर उनमें खलबली मच गई। आगे कहा कि. वह तो कभी अटकने पर मालूम होगा। तब वहाँ पर किसी की हेल्प लेनी पड़ेगी। इसलिए यह आपकी स्वतंत्र शक्ति है ही नहीं। यह तो भ्रांति से आपने कुदरत की शक्ति को खुद की शक्ति मान लिया है। परसत्ता को खुद की सत्ता मानते हैं, उसी का नाम भ्रांति। यह बात थोड़ी बहुत समझ में आयी आपको? दो आना या चार आना, जितना भी समझ में आया ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, समझ में आता है।
दादाश्री : उतना समझ में आये तो भी हल निकल आये। ये लोग जो बोलते हैं न कि, 'मैंने इतना तप किया, ऐसे जाप किये, अनशन किया' यह सब भ्रांति है। फिर भी जगत तो ऐसे का ऐसा ही रहेगा। अहंकार किये बगैर नहीं रहेगा। स्वभाव है न ?
कर्ता, नैमित्तिक कर्ता... प्रश्नकर्ता : अगर वास्तव में खुद कर्ता नहीं है, तो फिर कर्ता कौन है ? और उसका स्वरूप क्या है ?
दादाश्री : ऐसा है, नैमित्तिक कर्ता तो खुद ही है। खुद स्वतंत्र कर्ता तो है ही नहीं पर नैमित्तिक कर्ता है। यानी पार्लियामेन्ट्री पद्धति से कर्ता है। पार्लियामेन्ट्री पद्धति माने ? जैसे पार्लियामेन्ट में सबकी वोटिंग होती है और फिर अंत में खुद का वोट होता है न, उसके आधार पर
अर्थात बात कहाँ की कहाँ है यह तो! पर देखिए उलटा मान लिया है न! सारे संयोग अनुकूल हों, तो आ सके, वर्ना नहीं आ सकते।
सिर दुखता हो तो, आप आये हों तो भी वापस चले जायेंगे? हम ही आने-जानेवाले हों, तो सिर दुखने का बहाना नहीं बना सकते न? अरे, तब सिर आया था कि आप आये थे? अगर कोई रास्ते में मिले
और कहे, 'चलिये चन्दूलाल मेरे साथ' तो भी आप वापस चले जायेंगे। इसलिए संयोग अनुकूल हों, यहाँ पहुँचने तक कोई रोकनेवाला नहीं मिले तभी आ पायेंगे।
खुद की सत्ता कितनी ? आपने तो कभी खाया भी नहीं है न! यह तो सारा चन्दूलाल खाते हैं और आप मन में मानते हैं कि मैंने खाया। चन्दूलाल खाते हैं और संडास भी चन्दूलाल जाते हैं। बिना वज़ह इसमें फंसे हैं। यह आपकी समझ में आता है ?