Book Title: Mai Kaun Hun
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 24
________________ मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? माफ़ी माँगनी है। दोष किया यह मेरी समझ में आया और अब फिर से ऐसा दोष नहीं करूँगा ऐसा निश्चय करना चाहिए। ऐसा किया वह गलत किया, ऐसा नहीं होना चाहिए, फिर ऐसा दोबारा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना। फिर भी दूसरी बार हो जाये, वही दोष हो जाये तो फिर से पछतावा करना। जितने दोष दिखाई दिये, उनका पछतावा किया तो उतना कम हो गये। ऐसा करते करते आखिर आहिस्ता आहिस्ता खतम हो जायेगा। प्रश्नकर्ता : किसी व्यक्ति के प्रतिक्रमण किस तरह करने चाहिए ? दादाश्री : मन-वचन-काया, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म, (उस व्यक्ति का) नाम और उसके नाम की सर्व माया से, भिन्न ऐसे उसके शुद्धात्मा को याद करना, और फिर जो भी भूलें हुई हैं उन्हें याद करना (आलोचना), उन भूलों का मुझे पश्चाताप होता है और उसके लिए मुझे क्षमा करना (प्रतिक्रमण), फिर से ऐसी भूलें नहीं होंगी ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ, ऐसा तय करना (प्रत्याख्यान)। 'हम' खुद 'चन्दूभाई' के ज्ञाता-द्रष्टा रहें और जानें कि 'चन्दूभाई' ने कितने प्रतिक्रमण किये, कितने सुन्दर किये और कितनी बार किये। बार-बार कौन सचेत करता है ? प्रज्ञा ! ज्ञान प्राप्ति के बिना प्रज्ञा की शुरुआत नहीं होती है। या फिर सम्यक्त्व प्राप्त हुआ हो तो प्रज्ञा की शुरुआत होती है। सम्यक्त्व में प्रज्ञा की शुरुआत कैसे होती है ? दूज के चन्द्रमा जैसी शुरुआत होती है, जबकि अपने यहाँ तो पूर्ण प्रज्ञा उत्पन्न होती है। फल (पर्ण) प्रज्ञा यानी वह फिर मोक्ष में ले जाने के लिए ही चेताती है। भरत राजा को तो चेताने वाले रखने पड़े थे, नौकर रखने पड़े थे। जो हर पंद्रह मिनट पर आवाज़ देते कि 'भरत राजा! चेत, चेत, चेत!!!' तीन बार आवाज़ लगाते थे। देखिये, आपको तो भीतर से ही प्रज्ञा चेताती है। प्रज्ञा निरंतर चेताती रहे. कि 'ऐ. ऐसे नहीं'। सारा दिन चेताती रहे और यही है आत्मा का अनुभव, निरंतर, सारा दिन ही आत्मा का अनुभव! अनुभव भीतर होगा ही ! जिस दिन ज्ञान देते हैं, उस रात का जो अनुभव है, वह जाता नहीं है। किस प्रकार जाये फिर? हमने जिस दिन ज्ञान दिया था न, उस रात का जो अनुभव था वह सदा के लिए है। पर पुन: आपके कर्म घेर लेते हैं। पूर्वकर्म, जो भुगतने शेष हैं, वे 'मांगनेवाले' घेर लेते हैं, उसका मैं क्या करूँ? प्रश्नकर्ता : दादाजी, पर अब इतना भोगना नहीं पड़ता। दादाश्री: वह नहीं लगता यह अलग बात है. पर माँगनेवाले अधिक हों, तो उसे अधिक घेर ले। पाँच वाले को पाँच, दो वाले को दो और बीसवाले को बीस। मैंने तो आपको शुद्धात्मा पद में बिठा दिया, पर फिर माँगनेवाले दूसरे दिन आयें तब जरा सफोकेशन होगा। प्रज्ञा भीतर से चेताये ! यह विज्ञान है इसलिए हमें इसका अनुभव होता है और भीतर से ही चेतायेगा। वहाँ (क्रमिक में) तो हमें करना पड़े और यहाँ भीतर से ही चेताता है। प्रश्नकर्ता : अब भीतर से चेतावनी मिलती है यह अनुभव हुआ दादाश्री : अब हमें यह मार्ग मिल गया है और शुद्धात्मा की जो बाउन्डी (सीमा-रेखा) है, उसके पहले दरवाजे में प्रवेश मिल गया है, जहाँ से कोई निकाल बाहर नहीं कर सकता। किसी को वापस निकालने का अधिकार नहीं है, ऐसी जगह आपने प्रवेश पाया है। अब रहा क्या बाकी? वह क्रमिक विज्ञान है और यह अक्रम विज्ञान है। यह ज्ञान तो वीतरागों का ही है। ज्ञान में अंतर नहीं। हमारे ज्ञान देने के पश्चात आपको आत्म अनुभव हो जाने पर क्या काम बाकी रहता है ? ज्ञानी पुरुष की

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