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जीवन का ध्येय
यदि यह संसार आपको पुसाता हरकत नहीं करता ) हो तो आगे कुछ भी समझने की जरूरत नहीं है और यदि यह
संसार आपको कुछ हरकत करता हो तो अध्यात्म जानने की जरूरत है ।
अध्यात्म में 'स्व-रूप' को
जानने की जरूरत है। मैं कौन
हूँ.' यह जानने पर सारे पजल
सोल्व हो जायें ।
- दादाश्री
1 418972592-0
9 788189 725921
दादा भगवान प्ररूपित
मैं कौन हूँ ?
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डॉ. नीरूबहन अमीन
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दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : श्री अजीत सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९ E-Mail : info@dadabhagwan.org
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All Rights reserved - Dr. Niruben Amin Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
मैं कौन हूँ?
प्रथम संस्करण : प्रत ३०००, द्वितिय संस्करण : प्रत ४४००, तृतिय संस्करण : प्रत ५०००,
नवम्बर २००४ अगस्त २००५ मार्च २००५
भाव मूल्य : ‘परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : ५ रुपये
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद,
संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
मुद्रक
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिंटिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नये रिज़र्व बैंक के पास, इन्कमटैक्स एरिया, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, २७५४०२१६
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त्रिमंत्र
'दादा भगवान कौन ?
जून १९५८ की एक संध्या का करीब छः बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन। प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रगट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य । एक घण्टे में उनको विश्व दर्शन हुआ । 'मैं कौन ? भगवान कौन ? जगत कौन चलाता है ? कर्म क्या ? मुक्ति क्या ?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से । उसे अक्रम मार्ग कहा । अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार उपर चढ़ना। अक्रम अर्थात लिफ्ट मार्ग । शॉर्ट कट ।
आपश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन ?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं। सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं, इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया। बल्कि अपने व्यवसाय की अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
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आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लींक !
'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए ? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न ?"
- दादाश्री
परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जीवों को सत्संग और स्वरुप ज्ञान की प्राप्ति कराते थे। आपश्री ने अपनी हयात में ही पूज्य डॉ. नीरबहन अमीन को आत्मज्ञान प्रदान की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी।
परम पूज्य दादाश्री के देहविलय के पश्चात् आज भी पूज्य डॉ. नीरबहन अमीन गाँव-गाँव, देश-विदेश घूमकर मुमुक्षु जीवों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति निमित्त भाव से करा रही है। हजारों मुमुक्षुओं इसका लाभ पाकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं और संसार में रहकर जिम्मेवारियाँ निभाते हुए मुक्त रह सकते हैं।
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित
हिन्दी - अंग्रेजी पुस्तकें ज्ञानी पुरूष की पहचान सर्व दुःखो से मुक्ति कर्म का विज्ञान आत्मबोध यथार्थ धर्म (प्रकाशनाधीन) जगत कर्ता कौन? (प्रकाशनाधीन) अंत:करण का स्वरूप (प्रकाशनाधीन) मैं कौन हूँ?
टकराव टालिए १० हुआ सो न्याय
एडजस्ट एवरीव्हेयर १२. भूगते उसी की भूल १३ वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी
Adjust Everywhere 2. The Fault of the sufferer
Whatever has happened is Justice Avoid Clashes
Anger 6. Worries 7. The Essence of All Religion 8. Shree Simandhar Swami 9. Pure Love 10. Death : Before, During & After... 11. Gnani Purush Shri A.M.Patel 12. Who Am I? 13. The Science of Karma 14. Ahimsa (Non-violence) 15. Money 16. Celibacy : Brahmcharya 17. Harmony in Marriage 18. Pratikraman 19. Flawless Vision 20. Generation Gap 21. Apatvani-1
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शक के रुप में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान पाना जरूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति आज भी जारी है, इसके लिए प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी को मिलकर आत्मज्ञान की प्राप्ति करे तभी संभव है। प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है।
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संपादकीय
जीवन में जो कुछ भी सामने आया, उसका पूर्ण रूप से रीयलाइजेशन किये बगैर मनुष्य उसको अपनाता नहीं है। सब का रीयलाइजेशन किया. मात्र 'सेल्फ' का ही रीयलाइज़ेशन नहीं किया है। अनंत जन्मों से मैं कौन हूँ' उसकी पहचान ही अटकी हुई है, इसलिए तो इस भटकन का अंत नहीं होता! उसकी पहचान कैसे हो?
जिसे खुद की पहचान हो गई हो, वही व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को आसानी से पहचान करा सकता है। ऐसी विभूति यानी स्वयं ज्ञानी' ही! ज्ञानी पुरुष, कि जिसे इस संसार में कुछ भी जानने को, कि कुछ भी करने को बाकी नहीं रहा हो वह ! ऐसे ज्ञानी पुरुष परम पूज्य दादाश्री, इस काल में हमारे बीच आकर. हमारी ही भाषा में, हम समझ पायें ऐसी सरल भाषा में, हर किसी का मूल प्रश्न 'मैं कौन हूँ' का हल सहजता से बता देते हैं।
इतना ही नहीं, पर यह संसार क्या है ? किस प्रकार चल रहा है ? कर्ता कौन? भगवान क्या है ? मोक्ष क्या है ? ज्ञानी पुरुष किसे कहते हैं ? सीमंधर स्वामी कौन हैं ? संत, गुरु और ज्ञानी पुरुष में क्या भेद है ? ज्ञानी को किस तरह पहचानें ? ज्ञानी क्या कर सकते हैं ? उसमें भी परम पूज्य दादाश्री का अक्रम मार्ग क्या है ? क्रमिक रुप से तो मोक्षमार्ग पर अनंत जन्मों से चढ़ते ही आये हैं पर 'लिफ्ट' (एलिवेटर) जैसा भी मोक्षमार्ग में कुछ हो सकता है न? अक्रम मार्ग से, इस काल में, संसार में रहते हुए भी मोक्ष है और मोक्ष कैसे प्राप्त करना इसकी पूर्णतया समझ और सही दिशा की प्राप्ति परम पूज्य दादाश्री ने करवाई है।
'मैं कौन हूँ' की पहचान के पश्चात् कैसी अनुभूति रहती है, संसार व्यवहार निभाते हुए भी संपूर्ण निर्लेप आत्मस्थिति की अनुभूति में रहा जा सकता है। आधि-व्याधि और उपाधि में भी निरंतर स्वसमाधि में रह सकें, ऐसा अक्रम विज्ञान की प्राप्ति के पश्चात हजारों महात्माओं का अनुभव है ! इस सभी की प्राप्ति हेतु प्रस्तुत संकलन मोक्षार्थियों के लिए मोक्षमार्ग में प्रकाश स्तंभ बनकर दिशा दर्शन करे यही अभ्यर्थना।
- डॉ. नीरूबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
निवेदन आत्मज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से आत्मतत्त्व के बारे में जो वाणी निकली, उसको रिकार्ड करके संकलन तथा संपादन करके ग्रंथो में प्रकाशित की गई है। 'मैं कौन हूँ ?' पुस्तक में आत्मा, आत्मज्ञान तथा जगतकर्ता के बारे में बुनियादी बातें संक्षिप्त में संकलित की गई हैं। सुज्ञ वाचक के अध्ययन करते ही आत्मसाक्षात्कार की भूमिका निश्चित बन जाती है, ऐसा अनेकों का अनुभव है।
'अंबालालभाई' को सब'दादाजी' कहते थे। 'दादाजी' याने पितामह और 'दादा भगवान' तो वे भीतरवाले परमात्मा को कहते थे। शरीर भगवान नहीं हो सकता है, वह तो विनाशी है। भगवान तो अविनाशी है और उसे वे 'दादा भगवान' कहते थे, जो जीवमात्र के भीतर है।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ख्याल रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिश्चर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।"
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसी हमारी नम्र विनती है।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप के क्षमाप्रार्थी हैं ।
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
तो सेठ क्या कहेंगे कि 'मेरा नाम तो जयंतीलाल है और जनरल ट्रेडर्स तो मेरी दुकान का नाम है।' अर्थात दुकान का नाम अलग और सेठ उससे अलग, माल अलग, सब अलग अलग होता है न ? आपको क्या लगता है?
प्रश्रकर्ता : सही है।
दादाश्री : पर यहाँ तो, 'नहीं, मैं ही चन्दूलाल हूँ' ऐसा कहेंगे। अर्थात दुकान का बोर्ड भी मैं, और सेठ भी मैं ! आप चन्दलाल हैं, वह तो पहचान का साधन है।
असर हुआ, तो आत्मस्वरुप नहीं !
(१) 'मैं' कौन हूँ?
भिन्न, नाम और 'खुद' ! दादाश्री : क्या नाम है आपका ? प्रश्नकर्ता : मेरा नाम चन्दूलाल है। दादाश्री : वाक़ई आप चन्दूलाल हैं ? प्रश्नकर्ता : जी हाँ।
दादाश्री : चन्दूलाल तो आपका नाम है। चन्दूलाल आपका नाम नहीं है ? आप 'खुद' चन्दूलाल हैं कि आपका नाम चन्दूलाल है ?
प्रश्नकर्ता : वह तो नाम है।
दादाश्री : हाँ, तो फिर 'आप' कौन ? यदि 'चन्दूलाल' आपका नाम है तो 'आप' कौन हैं ? आपका 'नाम' और 'आप' अलग नहीं ? 'आप' नाम से अलग हैं तो 'आप'(खद) कौन हैं? यह बात आपको समझ में आती है न, कि मैं क्या कहना चाहता हूँ? 'यह मेरा चश्मा' कहने पर तो चश्मा और हम अलग हुए न ? ऐसे ही आप(खुद) नाम से अलग हैं, ऐसा अब नहीं लगता ?
जैसे कि दुकान का नाम रखें 'जनरल ट्रेडर्स', तो वह कोई गुनाह नहीं है। पर उसके सेठ से हम कहें कि 'ऐ! जनरल ट्रेडर्स, यहाँ आ।'
आप चन्दूलाल बिलकुल नहीं हैं ऐसा भी नहीं। आप हैं चन्दूलाल, मगर 'बाइ रिलेटिव व्यू पॉइन्ट' (व्यावहारिक दृष्टि) से यू आर चन्दूलाल, इज करेक्ट।
प्रश्नकर्ता : मैं तो आत्मा हूँ, पर नाम चन्दूलाल है।
दादाश्री : हाँ, पर अभी 'चन्दूलाल' को कोई गाली दे तो आपको असर होगा कि नहीं?
प्रश्नकर्ता : असर तो होगा ही।
दादाश्री : तब तो आप 'चन्दूलाल' हैं, 'आत्मा' नहीं हैं। आत्मा होते तो आपको असर नहीं होता, और असर होता है, इसलिए आप चन्दूलाल ही हैं।
चन्दूलाल के नाम से कोई गालियां दे तो आप उसे पकड़ लेते हैं। चन्दूलाल का नाम लेकर कोई उल्टा-सीधा कहे तो आप दीवार से कान लगाकर सुनते हैं। हम कहें कि, 'भैया, दीवार आपसे क्या कह रही है ?' तब कहते हैं, 'नहीं, दीवार नहीं, भीतर मेरी बात चल रही है उसे मैं सुन रहा हूँ।' किसकी बात चल रही है ? तब कहें, 'चन्दूलाल की।' अरे, पर आप चन्दूलाल नहीं हैं। यदि आप आत्मा हैं तो चन्दूलाल की बात अपने ऊपर नहीं लेते।
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
दादाश्री : सहज भाव से बोले तो भी अहंकार क्या चला जाता है ? 'मेरा नाम चन्दूलाल है' ऐसा सहज बोलने पर भी वह अहंकार ही है। क्योंकि आप 'जो हैं' यह जानते नहीं हैं और 'जो नहीं हैं' उसका आरोपण करते हैं, वह सब अहंकार ही है न !
प्रश्नकर्ता : वास्तव में तो 'मैं आत्मा ही हूँ' न ?
दादाश्री : अभी आप आत्मा हुए नहीं है न ? चन्दूलाल ही हैं न? 'मैं चन्दूलाल हूँ' यह आरोपित भाव है। आपको 'मैं चन्दूलाल ही हूँ', ऐसी बिलीफ़ (मान्यता) घर कर गई है, यह रौंग बिलीफ़ है।
(२) बिलीफ़ - रौंग, राइट !
कितनी सारी रौंग बिलीफ़ ! 'मैं चन्दूलाल हूँ' यह मान्यता, यह बिलीफ़ तो आपकी, रात को नींद में भी नहीं हटती है न! फिर लोग हमारी शादी करवा के हमसे कहेंगे कि ,'तू तो इस स्त्री का पति है।' इसलिए हमने फिर स्वामित्व मान लिया। फिर 'मैं इसका पति हूँ, पति हूँ' करते रहें। कोई सदा के लिए पति होता है क्या? डाइवोर्स होने के बाद दूसरे दिन उसका पति रहेगा क्या ? अर्थात ये सारी रौंग बिलीफ़ बैठ गई हैं।
'मैं चन्दूलाल हूँ' यह रौंग बिलीफ़ है। फिर 'इस स्त्री का पति हूँ' यह दूसरी रौंग बिलीफ़। 'मैं वैष्णव हूँ' यह तीसरी ग बिलीफ़। 'मैं वकील हूँ' यह चौथी गैंग बिलीफ़। 'मैं इस लड़के का फादर हूँ' यह पाँचवी रौंग बिलीफ़। इसका मामा हूँ', यह छट्ठी रौंग बिलीफ़। 'मैं गोरा हूँ' यह सातवीं रौंग बिलीफ़। 'मैं पैंतालीस साल का हूँ', यह आठवीं रौंग बिलीफ़। 'मैं इसका भागी (हिस्सेदार) हूँ' यह भी रौंग बिलीफ़। 'मैं इन्कमटैक्स पेयर हूँ' एसा आप कहें तो वह भी रौंग बिलीफ़। ऐसी कितनी गैंग बिलीफ़ बैठ गई होंगी?
___ मैं' का स्थान परिवर्तन ! 'मैं चन्दूलाल हूँ' यह अहंकार है। क्योंकि जहाँ 'मैं' नहीं, वहाँ 'मैं' का आरोपण किया, उसका नाम अहंकार।
प्रश्नकर्ता : 'मैं चन्दूलाल हूँ' कहें, उसमें अहंकार कहाँ आया ? 'मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ' ऐसा करे वह अलग बात है, पर सहज रूप से कहें, उसमें अहंकार कहाँ आया ?
'आप चन्दलाल हैं' वह डामेटिक वस्तु है। अर्थात 'मैं चन्दूलाल हूँ' ऐसा बोलने में हर्ज नहीं पर 'मैं चन्दूलाल हूँ' यह बिलीफ़ नहीं होनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता : हाँ, वर्ना 'मैं' पद आ गया।
दादाश्री : 'मैं' 'मैं' की जगह पर बैठे तो अहंकार नहीं है। पर 'मैं' मूल जगह पर नहीं है, आरोपित जगह पर है इसलिए अहंकार । आरोपित जगह से 'मैं' हट जाये और मूल जगह पर बैठ जाये तो अहंकार गया समझो। अर्थात 'मैं' निकालना नहीं है, 'मैं' को उसके एक्जैक्ट प्लेस (यथार्थ स्थान) पर रखना है।
_ 'खुद' खुद से ही अनजान ! यह तो अनंत जन्मों से, खुद, 'खुद' से गुप्त (अनजान) रहने का प्रयत्न है। खुद, 'खुद' से गुप्त रहे और पराया सब कुछ जाने, यह अजूबा ही है न! खुद, खुद से कितने समय तक गुप्त रहोगे? कब तक रहोगे? 'खद कौन है' इस पहचान के लिए ही यह जन्म है। मनुष्य जन्म इसलिए ही है कि 'खुद कौन हैं' उसकी खोज कर लें। नहीं तो, तब तक भटकते रहेंगे। 'मैं कौन हैं' यह जानना पड़ेगा न? आप खुद कौन हैं' यह जानना होगा कि नहीं जानना होगा? (३) 'I' और 'My' को अलग करने का प्रयोग !
सेपरेट, 'I' एन्ड 'My' ! आपसे कहा जाये कि, Separate 'I' and 'My' with Separator, तो आप 'I' और 'My' को सेपरेट कर सकेंगे क्या? 'I' एन्ड 'My' को
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सेपरेट करना चाहिए कि नहीं ? जगत में कभी न कभी जानना तो पड़ेगा न! सेपरेट 'I' एन्ड 'My' | जैसे दूध के लिए सेपरेटर होता है न, उसमें से मलाई सेपरेट (अलग) करते हैं न? ऐसे ही यह अलग करना है।
आपके पास 'My' जैसी कोई चीज़ है ? 'I' अकेला है कि 'My' साथ में है?
प्रश्रकर्ता : 'My' साथ में होगा न ! दादाश्री : क्या क्या 'My' है आपके पास? प्रश्नकर्ता : मेरा घर और घर की सभी चीजें। दादाश्री : सभी आपकी कहलायें ? और वाइफ किसकी कहलाये? प्रश्नकर्ता : वह भी मेरी। दादाश्री : और बच्चे किसके ? प्रश्नकर्ता : वे भी मेरे। दादाश्री : और यह घड़ी किसकी ? प्रश्रकर्ता : वह भी मेरी। दादाश्री : और यह हाथ किसके ? प्रश्नकर्ता : हाथ भी मेरे हैं।
दादाश्री : फिर 'मेरा सिर, मेरा शरीर, मेरे पैर, मेरे कान, मेरी आँखें' ऐसा कहेंगे। इस शरीर की सारी वस्तुओं को 'मेरा' कहते हैं, तब 'मेरा' कहनेवाले 'आप' कौन हैं ? यह नहीं सोचा ? ''My' नेम इज़ चन्दूलाल' कहें और फिर कहें 'मैं चन्दूलाल हूँ', इसमें कोई विरोधाभास नहीं लगता?
प्रश्नकर्ता : लगता है। दादाश्री : आप चन्दूलाल हैं, पर इसमें 'I' एन्ड 'My' दो हैं। यह
'I' एन्ड 'My' की दो रेल्वेलाइन अलग ही होती हैं। पैरेलल ही रहती हैं, कभी एकाकार होती ही नहीं हैं। फिर भी आप एकाकार मानते हैं, इसे समझकर इसमें से 'My' को सेपरेट कर दीजिए। आपमें जो 'Mv' है, उसे एक ओर रखिये। 'My' हार्ट, तो उसे एक ओर रखें। इस शरीर में से और क्या क्या सेपरेट करना होगा ?
प्रश्नकर्ता : पैर, इन्द्रियाँ।
दादाश्री : हाँ, सभी। पाँच इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ सभी। और फिर 'माइ माइन्ड' कहते हैं कि 'आइ एम माइन्ड' कहते हैं ?
प्रश्रकर्ता : 'माइ माइन्ड' कहते हैं। दादाश्री : मेरी बुद्धि कहते हैं न ? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : मेरा चित्त कहते हैं न ? प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : और 'माइ ईगोइज्म' बोलते हैं कि 'आइ एम ईगोइज्म' बोलते हैं?'
प्रश्नकर्ता : 'माइ ईगोइज्म'।
दादाश्री : 'माइ ईगोइज्म' कहेंगे तो उसे अलग कर सकेंगे। पर उसके आगे जो है, उसमें आपका हिस्सा क्या है, यह आप नहीं जानते। इसलिए फिर पूर्ण रूप से सेपरेशन नहीं हो पाता। आप, अपना कुछ हद तक ही जान पायेंगे। आप स्थूल वस्तु ही जानते हैं, सूक्ष्म की पहचान ही नहीं हैं। सूक्ष्म को अलग करना, फिर सक्ष्मतर को अलग करना, फिर सूक्ष्मतम को अलग करना तो ज्ञानी पुरुष का ही काम है।
पर एक-एक करके सारे स्पेयरपार्ट्स बाद करते जायें तो 'I' और माइ, दोनों अलग हो सकते हैं न ? 'I' और 'My' दोनों अलग करने
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पर आखिर क्या बचेगा ? 'My' को एक ओर रखें तो आखिर क्या बचा?
प्रश्नकर्ता : II
दादाश्री : वह 'I' ही आप हैं। बस, उसी 'I' को रीयलाइज़ करना
प्रश्नकर्ता : तो सेपरेट करके यह समझना है कि जो बाकी बचा वह 'मैं' हूँ ?
दादाश्री : हाँ, सेपरेट करने पर जो बाकी बचा, वह आप 'खुद हैं', 'I' आप खुद ही हैं। उसकी तलाश तो करनी होगी न ? अर्थात यह आसान रास्ता है न ? 'I' और 'My' अलग करें तो?
प्रश्नकर्ता : वैसे रास्ता तो आसान है, पर वो सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भी अलग हो तब न ? वह बिना ज्ञानी के नहीं होगा न ?
दादाश्री : हाँ, वह ज्ञानी पुरुष बता देंगे। इसीलिए हम कहते हैं न, Separate 'T' and 'My' with Gnani's separator. उस सेपरेटर को शास्त्रकार क्या कहते हैं ? भेदज्ञान कहते हैं। बिना भेदज्ञान के आप कैसे अलग करेंगे? क्या-क्या चीज़ आपकी है और क्या-क्या आपकी नहीं है, इन दोनों का आपको भेदज्ञान नहीं है। भेदज्ञान माने यह सब 'मेरा' है और 'मैं' अलग हूँ इनसे। इसलिए ज्ञानी पुरुष के पास, उनके सानिध्य में रहें तो भेदज्ञान प्राप्त हो जाये और फिर हमको ('I' और माइ) सेपरेट हो जायेगा।
दादाश्री : हाँ, ज़रूरत होगी। पर ज्ञानी पुरुष तो अधिक होते नहीं न! पर जब कभी हों, तब हम अपना काम निकाल लें। ज्ञानी पुरुष का 'सेपरेटर' ले लेना एकाध घण्टे के लिए, उसका भाडा-वाड़ा (किराया) नहीं होता! उससे सेपरेट कर लेना। इससे 'I' अलग हो जायेगा, वर्ना नहीं होगा न! 'I' अलग होने पर सारा काम हो जायेगा। सभी शास्त्रों का सार इतना ही है।
आत्मा होना है तो 'मेरा'(माइ) सब कुछ समर्पित कर देना पड़ेगा। ज्ञानी पुरुष को 'My' सौंप दिया तो अकेला 'I' आपके पास रहेगा। 'I' विद 'My' उसका नाम जीवात्मा। 'मैं हूँ और यह सब मेरा है' वह जीवात्म दशा और 'मैं ही हूँ और मेरा कुछ नहीं' वह परमात्म दशा। अर्थात 'My' की वजह से मोक्ष नहीं होता है। मैं कौन हूँ' का ज्ञान होने पर 'My' छूट जाता है। 'My' छूट गया तो सब छूट गया।
'My' इज़ रिलेटीव डिपार्टमेन्ट एन्ड 'I' इज़ रीयल। अर्थात 'I' टेम्पररी नहीं होता, 'T' इज़ परमानेन्ट। 'My' इज़ टेम्पररी। याने आपको 'I' ढूँढ निकालना है।
(४) संसार में ऊपरी कौन ?
ज्ञानी ही पहचान कराये 'मैं' की ! प्रश्नकर्ता : 'मैं कौन हूँ' यह जानने की जो बात है, वह इस संसार में रहकर कैसे संभव हो सकती है ?
दादाश्री : तब कहाँ रहकर जान सकें उसे ? संसार के अलावा और कोई जगह है जहाँ रह सकें ? इस जगत में सभी संसारी ही हैं और सभी संसार में रहते हैं। यहाँ 'मैं कौन हूँ' यह जानने को मिले, ऐसा है। 'आप कौन हैं' यह समझने का विज्ञान ही है यहाँ पर। यहाँ आना, हम आपको पहचान करा देंगे।
और यह हम आपसे जितना पूछते हैं, वह हम आपसे ऐसा नहीं कहते कि आप ऐसा करें। आपसे हो सके, ऐसा नहीं है। अर्थात हम
'I' और 'My' का भेद करें तो बहुत आसान है न यह ? मैंने यह तरीका बताया, इसके अनुसार अध्यात्म सरल है कि कठिन है ? वर्ना इस काल के जीवों का तो शास्त्र पढ़ते पढ़ते दम निकल जायेगा।
प्रश्नकर्ता : आप जैसों की ज़रूरत होगी न, समझने के लिए
तो?
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(५) जगत में कर्ता कौन ?
जगत कर्ता की वास्तविकता ! फैक्ट वस्तु नहीं जानने से ही यह सब उलझा हुआ है। अब आपको, 'जो जाना हुआ है' वह जानना है, या 'जो नहीं जाना हुआ है' वह जानना है?
आपसे क्या कहते हैं कि हम आपको सब कर देंगे। इसलिए आप चिंता मत करना। यह तो पहले समझ लें कि वास्तव में 'हम' क्या हैं और क्या जानने योग्य है ? सही बात क्या है ? करेक्टनेस क्या है ? दुनिया क्या है? यह सब क्या है ? परमात्मा क्या है ?
परमात्मा है ? परमात्मा है ही और वह आपके पास ही है। बाहर कहाँ खोजते हैं ? पर कोई हमें यह दरवाजा खोल दे तो दर्शन कर पायें न! यह दरवाज़ा ऐसे बंद हो गया है कि खुद से खुल पाये, ऐसा है ही नहीं। वह तो जो खुद पार हुए हों, ऐसे तरणतारण ज्ञानी पुरुष का ही काम है।
खुद की ही भूलें खुद की ऊपरी ! भगवान तो आपका स्वरूप है। आपका कोई ऊपरी है ही नहीं। कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। आपको कोई कुछ करने वाला ही नहीं। आप स्वतंत्र ही हैं, केवल अपनी भूलों के कारण आप बँधे हुए हैं।
आपका कोई ऊपरी नहीं है और आप में किसी जीव का दखल (हस्तक्षेप) भी नहीं है। इतने सारे जीव हैं, पर किसी जीव का आप में दखल नहीं है। और ये लोग जो कुछ दखल करते हैं, तो वह आपकी भूल की वजह से दखल करते हैं। आपने जो (पूर्व में) दखल की थी, उसका यह फल है। यह मैं खुद देखकर' बताता हूँ।
हम इन दो वाक्यों में गारन्टी देते हैं, इससे मनुष्य मुक्त रह सकता है। हम क्या कहते हैं कि,
'आपका ऊपरी दुनिया में कोई नहीं। आपके ऊपरी आपके ब्लंडर्स और आपकी मिस्टेक्स हैं। ये दो नहीं हों तो आप परमात्मा ही हैं।'
और 'आप में किसी की जरा भी दखल नहीं है। कोई जीव किसी जीव को किंचित्मात्र दखल कर सके ऐसी स्थिति में ही नहीं है ऐसा यह जगत है।'
ये दो वाक्य सब समाधान ला देते हैं।
जगत क्या है ? किस तरह बना ? बनानेवाला कौन? हमें इस जगत से क्या लेना-देना? हमारे साथ हमारे संबंधियों का क्या लेनादेना? बिज़नेस किस आधार पर ? मैं कर्ता हूँ या कोई और कर्ता है ? यह सब जानने की ज़रुरत तो है ही न?
प्रश्नकर्ता : जी हाँ।
दादाश्री : इसलिए इसमें शुरु में आपको क्या जानना है, उसकी बातचीत पहले करें। जगत किसने बनाया होगा, आपको क्या लगता है? किसने बनाया होगा ऐसा उलझन भरा जगत ? आपका क्या मत है ?
प्रश्नकर्ता : ईश्वर ने ही बनाया होगा।
दादाश्री : तो फिर सारे संसार को चिंता में क्यों रखा है? चिंता से बाहर की अवस्था ही नहीं है।
प्रश्रकर्ता : सब लोग चिंता करते ही हैं न ?
दादाश्री : हाँ, मगर उसने यह संसार बनाया तो चिंतावाला क्यों बनाया ? उसको पकड़वा दो, सीबीआई वाले को भेजकर। पर भगवान गुनहगार है ही नहीं ! यह तो लोगों ने उसे गुनहगार करार दिया है।
वास्तव में तो, गोड इज़ नोट क्रियेटर ऑफ दिस वर्ल्ड एट ऑल। ओन्ली सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। अर्थात यह तो सारी कुदरती रचना है। उसे गुजराती में मैं 'व्यवस्थित शक्ति' कहता हूँ। यह तो बहुत सूक्ष्म बात है।
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मैं कौन हैं?
मैं कौन हूँ?
उसे मोक्ष कहते ही नहीं !
छोटा बच्चा हो वह भी कहता है कि, 'भगवान ने बनाया'। बड़े संत हो वे भी कहते हैं कि 'भगवान ने बनाया'। यह बात लौकिक है, अलौकिक (रीयल) नहीं है।
भगवान यदि क्रियेटर होता तो वह सदा के लिए हमारा ऊपरी ठहरता और मोक्ष जैसी चीज नहीं होती। पर मोक्ष है। भगवान क्रियेटर नहीं है। मोक्ष को समझने वाले लोग भगवान को क्रियेटर नहीं मानते। 'मोक्ष' और 'भगवान क्रियेटर' ये दोनों विरोधाभासी बातें हैं। क्रियेटर तो हमेशा का उपकारी हुआ और उपकारी हुआ इसलिए आखिर तक ऊपरी का ऊपरी ही रहा।
तो भगवान को किसने बनाया ?
भगवान ने बनाया, यदि ऐसा हम अलौकिक तौर पर कहेंगे तो 'लोजिक' वाले हमें पूछेगे कि, 'भगवान को किसने बनाया ?' इसलिए प्रश्न खड़े होते हैं। लोग मुझे कहते हैं, 'हमें लगता है कि भगवान ही दुनिया के कर्ता हैं। आप तो इन्कार करते हैं, पर आपकी बात मानने में नहीं आती है। तब मैं पूछता हूँ कि यदि मैं स्वीकार करूँ कि भगवान कर्ता है, तो उस भगवान को किसने बनाया है ? यह आप मुझे बतायें।
और उस बनाने वाले को किसने बनाया ? कोई भी कर्ता हुआ तो उसका कर्ता होना चाहिए, यह 'लोजिक' है। पर फिर उसका एन्ड(अंत) ही नहीं आयेगा, इसलिए वह बात गलत है।
न आदि, न ही अंत, जगत का !
प्रमाणित करने के लिए आप मेरे साथ थोड़ी बातचीत कीजिए। यदि वह क्रियेटर है तो उसने किस साल में क्रियेट किया यह बताइए। तब वे कहते हैं, 'साल हमें मालूम नहीं है।' मैंने पूछा, 'पर उसकी बिगिनिंग हुई कि नहीं हुई?' तब कहें, 'हाँ, बिगिनिंग हुई। क्रियेटर कहा, माने बिगिनिंग होगी ही !' जिसकी बिगिनिंग होगी, उसका अंत होगा। पर यह तो बिना एन्ड का जगत है। बिगिनिंग नहीं हुई फिर एन्ड कहाँ से होगा? यह तो अनादि अनंत है। जिसकी बिगिनिंग नहीं हुई हो, उसका बनानेवाला नहीं हो सकता, ऐसा नहीं लगता ?
भगवान का सही पता ! तब इन फोरिन के सायंटिस्टों ने पूछा कि, 'तो भगवान नहीं है, क्या?' तब मैंने कहा, 'भगवान नहीं होते तो इस जगत में जो भावनाएँ है, सुख और दुःख का जो अनुभव होता है, उसका कोई अनुभव ही नहीं होता। इसलिए भगवान अवश्य हैं।' उन्होंने मुझसे पछा कि, 'भगवान कहाँ रहते है ?' मैंने कहा, 'आपको कहाँ लगते हैं ?' तब वे कहें, 'ऊपर'। मैंने पूछा, 'वे ऊपर कहाँ रहते हैं ? उनकी गली का नंबर क्या ? कौन सी गली, जानते हैं आप ? खत पहुँचे ऐसा सही एड्रेस है आपके पास?' ऊपर तो कोई बाप भी नहीं है। सब जगह मैं घूम आया। सब लोग कहते थे कि ऊपर है, ऊपर उँगली उठाते रहे। इससे मेरे मन में हुआ कि सभी लोग बता रहें हैं, इसलिए कुछ होना चाहिए। इसलिए मैं ऊपर सब जगह तलाश कर आया तो ऊपर तो खाली आकाश ही है. ऊपर कोई नहीं मिला। ऊपर तो कोई रहता नहीं है। अब उन फोरिन के सायंटिस्टों ने मुझसे कहा कि, 'भगवान का सही एड्रेस बतायेंगे ?' मैंने कहा, 'लिख लीजिए। गॉड इज इन एवरी क्रियेचर, व्हेदर 'विज़िबल' और 'इनविज़िबल', नोट इन क्रियेशन।' (भगवान, आँखों से दिखाई देनेवाले या नहीं दिखाई देनेवाले, हर एक जीव में विद्यमान हैं, पर मानव निर्मित किसी चीज़ में नहीं।')
यानी किसी के बनाये बगैर बना है, किसी ने बनाया नहीं इसे। किसी ने बनाया नहीं है, इसलिए अब किससे पूछेगे इसके बारे में हम? मैं भी ढूँढता था कि कौन इसका जिम्मेवार है, जिसने यह सारा झमेला किया ! मैंने सब जगह तलाश किया, पर कहीं नहीं मिला।
मैंने 'फोरीन' के सायन्टिस्टों से कहा कि, 'गोड क्रियेटर है, इसे
यह टेपरिकार्डर 'क्रियेशन' कहलाता है। जितनी मैनमेड (मानव
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
निर्मित) वस्तुएँ हैं, मनुष्यों की बनाई हुई वस्तुएँ हैं, उनमें भगवान नहीं हैं। जो कुदरती रचना है, उसमें भगवान है।
मनोनुकूल का सिद्धांत ! कितने सारे संयोग इकट्ठा होने पर कोई कार्य होता है, यानी यह सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। उसमें ईगोइज्म करके. 'मैंने किया', कहकर हाँकते रहते हैं। पर अच्छा होने पर 'मैंने किया' और बिगडने पर 'मेरे संयोग अभी ठीक नहीं हैं' ऐसा हमारे लोग कहते हैं न? संयोगों को मानते हैं न, हमारे लोग ?
प्रश्रकर्ता : हाँ।
सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स ! इसलिए बातचीत कीजिए, जो कुछ भी बातचीत करनी हो वह सब कीजिए। ऐसी बातचीत कीजिए कि जिससे आपको सब खुलासा हो जाये।
प्रश्नकर्ता : यह 'सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' समझ में नहीं आया।
दादाश्री: यह सब सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स (वैज्ञानिक सांयोगिक प्रमाणों) के आधार पर है। संसार में एक भी परमाणु चेन्ज हो सके ऐसा नहीं है। अभी आप भोजन करने बैठे, तो आपको मालूम नहीं कि मैं क्या खानेवाला हूँ ? बनानेवाला नहीं जानता कि कल खाने में क्या पकाना है ? यह कैसे हो जाता है, यही अजूबा है। आपसे कितना खाया जायेगा और कितना नहीं, वह सब परमाणु मात्र, निश्चित है।
आप आज मुझसे मिले न, वह किस आधार पर मिल पाये? ओन्ली सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। अति अति गुह्य कारण है। उस कारण को खोज निकालें।
दादाश्री : कमाई होती है तो उसका गर्वरस खुद चखता है और जब घाटा होता है तब कुछ बहाना बनाता है। हम पछे, 'सेठजी, ऐसे क्यों हो गये हैं अभी ?' तब वे कहेंगे, 'भगवान रूठे हैं।'
प्रश्नकर्ता : मनोनुकूल का सिद्धांत हो गया।
दादाश्री : हाँ, मनोनुकूल, पर ऐसा आरोप उसके ऊपर (भगवान पर) नहीं लगाना चाहिए। वकील पर आरोप लगायें या और किसी पर आरोप लगायें वह तो ठीक है, पर भगवान पर आरोप लगा सकते हैं क्या ? वकील तो दावा दायर करके हिसाब माँगे पर इसका दावा कौन दायर करेगा? इसका फल तो अगले जन्म में (संसार की) भयंकर बेड़ी मिले। भगवान के ऊपर आरोप लगा सकते हैं क्या ?
प्रश्नकर्ता : नहीं लगा सकते।
दादाश्री : या फिर कहेगा, 'स्टार्स फेवरेबल (ग्रह अनुकूल) नहीं हैं।' या फिर 'हिस्सेदार मुआ टेढ़ा है' ऐसा कहे। नहीं तो 'लड़के की बहू मनहूस है' ऐसा कहें। पर अपने सिर नहीं आने देता! अपने सिर कभी गुनहगारी नहीं लेता। इसके बारे में मेरी एक फोरिनवाले से बातचीत हुई थी। उसने पूछा कि 'आपके इन्डियन लोग गुनाह अपने सिर क्यों नहीं आने देते ?' मैंने कहा, 'यही इन्डियन पज़ल है। इन्डिया का सबसे बड़ा पज़ल (समस्या) हो तो, यही है।'
प्रश्नकर्ता : पर वह खोजें किस तरह ?
दादाश्री : जैसे अभी आप यहाँ आये, उसमें आपके बस में कुछ है नहीं। वह तो आपकी मान्यता है, ईगोइज़म करते हो कि. 'मैं आया
और गया।' यह जो आप कहते हैं, 'मैं आया' और मैं कहूँ कि, 'कल क्यों नहीं आये थे ?' तब 'ऐसे' पैर दिखाये, इससे क्या समझा जाये?
प्रश्नकर्ता : पैर दु:खते थे।
दादाश्री : हाँ, पैर दुःखते थे। पैर का बहाना करे तो नहीं समझ जायें कि आनेवाले आप, कि पैर आनेवाले ?
प्रश्रकर्ता : पर मैं ही आया कहलाये न ?
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
दादाश्री : आप ही आये हैं न, नहीं ? यदि पैर दुखते हों तब भी आप आयेंगे?
प्रश्नकर्ता : मेरी खुद की इच्छा थी आने की, इसलिए आया हूँ।
दादाश्री : हाँ, इच्छा थी आपकी, इसलिए आये। पर यह पैर आदि सब ठीक थे तभी आ पाये न ? ठीक नहीं होते तो ?
प्रश्नकर्ता : तब तो नहीं आ पाता, ठीक बात है।
दादाश्री : यानी आप अकेले आ पाते हैं ? जैसे एक आदमी रथ में बैठकर यहाँ पर आया और कहे, 'मैं आया, मैं आया।' तब हम पूछे, 'यह आपके पैर को तो पैरेलीसिस हआ है, तो आप आये कैसे ?' तब वह कहे, 'रथ में आया। पर मैं ही आया, मैं ही आया।' 'अरे! मगर रथ आया कि आप आये?' तब वह कहें, 'रथ आया।' फिर मैं कहूँ कि, 'रथ आया कि बैल आये?'
प्रश्नकर्ता : समझाइये।
दादाश्री : इस संसार में कोई मनुष्य संडास जाने की भी स्वतंत्र सत्तावाला जन्मा नहीं है। संडास जाने की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है किसीकी, फिर और कौन सी सत्ता होगी? यह तो, जहाँ तक आपकी मरज़ी के अनुसार थोड़ा बहुत होता है, तो मन में मान लेते हैं कि मेरे से ही होता है सब कुछ। कभी जब अटके न, तब पता चले।
मैंने फोरिन रिटर्न डॉक्टरों को यहाँ बड़ौदा में बुलाया था, दसबारह जनों को। उनसे मैंने कहा, 'संडास जाने की स्वतंत्र शक्ति आपकी नहीं है।' इस पर उनमें खलबली मच गई। आगे कहा कि. वह तो कभी अटकने पर मालूम होगा। तब वहाँ पर किसी की हेल्प लेनी पड़ेगी। इसलिए यह आपकी स्वतंत्र शक्ति है ही नहीं। यह तो भ्रांति से आपने कुदरत की शक्ति को खुद की शक्ति मान लिया है। परसत्ता को खुद की सत्ता मानते हैं, उसी का नाम भ्रांति। यह बात थोड़ी बहुत समझ में आयी आपको? दो आना या चार आना, जितना भी समझ में आया ?
प्रश्नकर्ता : हाँ, समझ में आता है।
दादाश्री : उतना समझ में आये तो भी हल निकल आये। ये लोग जो बोलते हैं न कि, 'मैंने इतना तप किया, ऐसे जाप किये, अनशन किया' यह सब भ्रांति है। फिर भी जगत तो ऐसे का ऐसा ही रहेगा। अहंकार किये बगैर नहीं रहेगा। स्वभाव है न ?
कर्ता, नैमित्तिक कर्ता... प्रश्नकर्ता : अगर वास्तव में खुद कर्ता नहीं है, तो फिर कर्ता कौन है ? और उसका स्वरूप क्या है ?
दादाश्री : ऐसा है, नैमित्तिक कर्ता तो खुद ही है। खुद स्वतंत्र कर्ता तो है ही नहीं पर नैमित्तिक कर्ता है। यानी पार्लियामेन्ट्री पद्धति से कर्ता है। पार्लियामेन्ट्री पद्धति माने ? जैसे पार्लियामेन्ट में सबकी वोटिंग होती है और फिर अंत में खुद का वोट होता है न, उसके आधार पर
अर्थात बात कहाँ की कहाँ है यह तो! पर देखिए उलटा मान लिया है न! सारे संयोग अनुकूल हों, तो आ सके, वर्ना नहीं आ सकते।
सिर दुखता हो तो, आप आये हों तो भी वापस चले जायेंगे? हम ही आने-जानेवाले हों, तो सिर दुखने का बहाना नहीं बना सकते न? अरे, तब सिर आया था कि आप आये थे? अगर कोई रास्ते में मिले
और कहे, 'चलिये चन्दूलाल मेरे साथ' तो भी आप वापस चले जायेंगे। इसलिए संयोग अनुकूल हों, यहाँ पहुँचने तक कोई रोकनेवाला नहीं मिले तभी आ पायेंगे।
खुद की सत्ता कितनी ? आपने तो कभी खाया भी नहीं है न! यह तो सारा चन्दूलाल खाते हैं और आप मन में मानते हैं कि मैंने खाया। चन्दूलाल खाते हैं और संडास भी चन्दूलाल जाते हैं। बिना वज़ह इसमें फंसे हैं। यह आपकी समझ में आता है ?
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
खुद कहता है कि यह तो मुझे करना होगा। उस हिसाब से कर्ता होता है, ऐसे योजना का सर्जन होता है। योजना करनेवाला खुद ही है। कर्तापन केवल योजना में ही होता है। योजना में उसके दस्तख़त हैं। पर संसार में लोग यह जानते नहीं। वह व्यष्टि कम्प्यूटर, छोटा कम्प्यूटर जैसा है। जैसे छोटे कम्प्यूटर में से फीड किया हआ निकले और बड़े कम्प्यूटर में वह फीड हो जाये, इस तरह यह योजना सर्जन होकर बड़े कम्प्यूटर में जाती है। बड़ा कम्प्यूटर वह समष्टि कम्प्यूटर है। वह फिर उसका विसर्जन करता है। इसलिए इस जन्म की सारी लाइफ विसर्जन स्वरूप में है, जिसका सर्जन पिछले जन्म में किया हुआ होता है। इसलिए इस भव में जन्म से लेकर मृत्यु तक विसर्जन स्वरूप ही है। खुद के हाथ में कुछ भी नहीं है, परसत्ता में ही है। एक बार योजना हो गई कि सब परसत्ता में चला जाता है। परिणाम में परसत्ता का ही अमल चलता है। अर्थात परिणाम अलग है। परिणाम परसत्ता के अधीन है। आपको समझ में आता है ? यह बात बहुत गहन है।
कर्तापद से कर्मबंधन ! प्रश्नकर्ता : इस कर्म के बंधन में से छूटने के लिए क्या करें ?
दादाश्री: यह कर्म जो है वह कर्ता के अधीन है। इसलिए कर्ता हों तो ही कर्म होगा। कर्ता न हों तो कर्म नहीं होगा। कर्ता कैसे ? आरोपित भाव में जा बैठा इसलिए कर्ता हुआ। अपने मूल स्वभाव में आये तो खद कर्ता है ही नहीं। 'मैंने किया ऐसा कहा इसलिए कर्ता हुआ। यानी कर्म को आधार दिया। अब खुद कर्ता न हो तो कर्म गिर जाये, निराधार करने पर कर्म गिर जायेगा। यानी कर्तापन है तब तक कर्म है।
'छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म, नहीं भोक्ता तू इसका, यही धर्म का मर्म'
श्रीमद् राजचन्द्र अभी आप 'मैं चन्दूलाल हूँ' ऐसा मान बैठे हैं, इसलिए सब
एकाकार हो गया है। अंदर दो वस्तुएँ अलग अलग हैं। आप अलग और चन्दूलाल अलग हैं। पर यह आप नहीं जानते, तब तक क्या हो ? ज्ञानी पुरुष भेद विज्ञान से अलग अलग कर दें, फिर जब 'आप' ('चन्दूलाल' से) अलग हो जायें, तब 'आपको' कुछ भी करने का नहीं, सब 'चन्दूलाल' किया करे।।
(६) भेदज्ञान कौन कराये ? आत्मा-अनात्मा का वैज्ञानिक विभाजन ! जैसे इस अंगूठी में सोना और ताँबा दोनों मिले हुए हैं, उसे हम गाँव में ले जाकर किसी को कहें कि, 'भैया, अलग अलग कर दीजिए न!' तो क्या कोई भी कर देगा ? कौन कर पायेगा ?
प्रश्नकर्ता : सुनार ही कर पायेगा।
दादाश्री : जिसका यह काम है, जो इसमें एक्सपर्ट है, वह सोना और ताँबा दोनों अलग कर देगा। सौ का सौ टंच सोना अलग कर देगा, क्योंकि वह दोनों के गुणधर्म जानता है कि सोने के गुणधर्म ये हैं और ताँबे के गुणधर्म ऐसे हैं। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष आत्मा के गुणधर्म को जानते हैं और अनात्मा के गुणधर्म को भी जानते हैं।
जैसे अंगूठी में सोना और ताँबे का 'मिक्ष्चर' हो तो उसे अलग किया जा सकता है। सोना और ताँबा दोनों कम्पाउन्ड स्वरूप हो जाते तो उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। क्योंकि इससे गुणधर्म अलग ही प्रकार के हो जाते। इसी प्रकार जीव के अंदर चेतन और अचेतन का मिक्ष्चर है, वे कम्पाउन्ड स्वरूप नहीं हए। इसलिए फिर से अपने स्वभाव को प्राप्त कर सकते हैं। कम्पाउन्ड हुआ होता तो पता ही नहीं चलता। चेतन के गुणधर्मों का भी पता नहीं चलता और अचेतन के गुणधर्मों का भी पता नहीं चलता और तीसरा ही गुणधर्म उत्पन्न हो जाता। पर ऐसा नहीं है। वह तो केवल मिक्ष्चर हुआ है। इसलिए ज्ञानी पुरुष इनको अलग करके दे दें तो आत्मा की पहचान हो जाये।
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
ज्ञानविधि क्या है ? प्रश्नकर्ता : आपकी ज्ञानविधि क्या है ?
दादाश्री : ज्ञानविधि तो सेपरेशन (अलग) करना है, पुद्गल (अनात्मा) और आत्मा का! शुद्ध चेतन और पुद्गल दोनों का सेपरेशन।
प्रश्नकर्ता : यह सिद्धांततः तो ठीक ही है लेकिन उसकी पद्धति क्या है ?
दादाश्री : इसमें लेने-देने जैसा कुछ होता नहीं है, केवल यहाँ बैठकर यह जैसा है वैसा बोलने की जरूरत है ('मैं कौन हूँ' उसकी पहचान, ज्ञान कराना, दो घण्टे का ज्ञानप्रयोग होता है। उसमें अड़तालीस मिनिट आत्मा-अनात्मा का भेद करनेवाले भेदविज्ञान के वाक्य बुलवाये जाते हैं। जो सभी को बोलने होते हैं। उसके बाद एक घण्टे में पाँच आज्ञाएँ उदाहरण देकर विस्तारपूर्वक समझाई जाती है, कि अब बाकी का जीवन कैसे व्यतीत करना कि जिससे नये कर्म नहीं बंधे और पुराने कर्म पूर्णतया खत्म हो जायें, साथ ही 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का लक्ष्य हमेशा रहा करे!)
आवश्यकता गुरु की ? ज्ञानी की ? प्रश्नकर्ता : दादाजी मिलने से पहले किसी को गुरु माना हो तो? तो उनका क्या करें?
दादाश्री : उनके वहाँ जाना, और नहीं जाना हो तो, जाना आवश्यक भी नहीं है। हम जाना चाहें तो जायें और नहीं जाना हो तो नहीं जायें। उन्हें दुःख न हो, इसके लिये जाना चाहिए। हमें विनय रखना चाहिए। यहाँ पर 'आत्मज्ञान' लेते समय मुझसे कोई पूछे कि, 'अब मैं गुरु को छोड़ दूँ ?' तब मैं कहूँ कि, 'नहीं छोड़ना। अरे, उस गुरु के प्रताप से तो यहाँ तक पहुँच पाया है।' गुरु की वजह से मनुष्य कुछ मर्यादा में रह सकता है। गुरु नहीं हो तो मर्यादा भी नहीं होगी। और गुरु से कहना चाहिए कि 'मुझे ज्ञानी पुरुष मिले हैं। उनके दर्शन करने जाता हूँ।' कुछ
लोग तो अपने गुरु को भी मेरे पास ले आते हैं, क्योंकि गुरु को भी मोक्ष तो चाहिए न ! संसार का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं होता और मोक्ष का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं होता। व्यवहार के गुरु 'व्यवहार' के लिए हैं और ज्ञानी पुरुष 'निश्चय' के लिए हैं। व्यवहार रिलेटिव है और निश्चय रीयल है। रिलेटिव के लिए गुरु चाहिए और रीयल के लिए ज्ञानी पुरुष चाहिए।
(७) मोक्ष का स्वरूप क्या ?
ध्येय केवल यही होना चाहिए ! प्रश्नकर्ता : मनुष्य का ध्येय क्या होना चाहिए ?
दादाश्री : मोक्ष में जाने का ही! यही ध्येय होना चाहिए। आपको भी मोक्ष में ही जाना है न? कहाँ तक भटकना? अनंत जन्मों से भटक भटक... भटकने में कुछ बाकी ही नहीं छोड़ा है न! तिर्यंच (जानवर) गति में, मनुष्यगति में, देवगति में, सभी जगह भटकता ही रहा है। किस लिए भटकना हुआ? क्योंकि 'मैं कौन हूँ' यही नहीं जाना। खुद का स्वरूप ही नहीं पहचाना। खुद का स्वरूप पहचानना चाहिए। खुद कौन है' इसकी पहचान नहीं करनी चाहिए? इतना घूमें फिर भी नहीं जाना आपने? केवल पैसे कमाने के पीछे पड़े हैं? मोक्ष के लिए भी थोड़ाबहुत करना चाहिए कि नहीं करना चाहिए ?
प्रश्रकर्ता : करना चाहिए।
दादाश्री : अर्थात स्वतंत्र होने की ज़रूरत है न? ऐसे परवश कब तक रहना ?
प्रश्नकर्ता : स्वतंत्र होने की ज़रूरत नहीं है मगर स्वतंत्र होने की समझ की ज़रूरत है, ऐसी मेरी मान्यता है।
___ दादाश्री : हाँ, उसी समझ की ही ज़रूरत है। उस समझ को हम जान लें तो बहुत हो गया, भले ही स्वतंत्र नहीं हो पायें। स्वतंत्र हो पायें कि नहीं हो पायें वह उसके बाद की बात है, लेकिन उस समझ की जरूरत तो है न? पहले समझ प्राप्त हो गई, तो बहुत हो गया।
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
'स्वभाव' में आने में मेहनत नहीं ! मोक्ष याने अपने स्वभाव में आना और संसार यानी अपने विशेष भाव में जाना। यानी आसान क्या? स्वभाव में रहना ! यानी मोक्ष कठिन नहीं होता। संसार हमेशा ही कठिन रहा है। मोक्ष तो खिचड़ी बनाने से भी आसान है। खिचड़ी बनाने के लिए तो लकड़ी लानी पड़े, दालचावल लाने पड़े, पतीली लानी पड़े, पानी लाना पड़े, तब जाकर खिचड़ी बने। जबकि मोक्ष तो खिचडी से भी आसान है पर मोक्षदाता ज्ञानी मिलने चाहिए। वर्ना मोक्ष कभी नहीं हो सकता। करोड़ों जन्म लेने पर भी नहीं होगा। अनंत जन्म हो ही चुके हैं न ?
मेहनत से मोक्षप्राप्ति नहीं ! यह हम कहते हैं न, कि हमारे पास आकर मोक्ष ले जाइए, तब लोग मन में सोचते हैं कि 'ऐसा दिया गया मोक्ष किस काम का, अपनी मेहनत किये बिना ?' तो भैया, मेहनत करके लाना। देखिये, उसकी समझ कितनी अच्छी (!) है?' बाकी मेहनत से कुछ भी मिलनेवाला नहीं है। मेहनत से कभी किसी को मोक्ष मिला नहीं है।
प्रश्नकर्ता : मोक्ष दिया या लिया जा सकता है क्या ?
दादाश्री : वह लेने-देने का होता ही नहीं है। यह तो नैमित्तिक है। आप मुझसे मिले, यह निमित्त हुआ। निमित्त ज़रूरी है। बाकी, न तो कोई देनेवाला है और न ही कोई लेनेवाला है। देनेवाला कौन कहलाता है ? कोई अपनी वस्तु देता हो, तो उसे देनेवाला कहते हैं। पर मोक्ष तो आपके घर में ही है, हमें तो केवल आपको दिखाना है, रीयलाइज़ करा देना है। यानी लेने देने का होता ही नहीं, हम तो केवल निमित्त हैं।
चाहिए। तब मैं कहता हूँ कि, 'भैया, आपको मोक्ष की जरूरत नहीं है लेकिन सुख तो चाहिए कि नहीं? कि दुःख पसंद है ?' तब कहते हैं, 'नहीं, सुख तो चाहता हूँ।' मैंने कहा, 'सुख थोड़ा-बहुत कम होगा तो चलेगा?' तब वह कहे, 'नहीं, सुख तो पूरा ही चाहिए।' तब मैंने कहा, 'तो हम सुख की ही बात करें। मोक्ष की बात जाने दें।' मोक्ष क्या चीज
बात कर मामलोसा है, यह लोग समझते ही नहीं। शब्द में बोलें इतना ही है। लोग ऐसा समझते हैं कि मोक्ष नाम की कोई जगह है और वहाँ जाने से हमें मोक्ष का मजा आता है ! पर ऐसा नहीं है यह।
मोक्ष, दो स्टेज में ! प्रश्नकर्ता : मोक्ष का अर्थ, हम आम तौर पर 'जन्म-मरण से मुक्ति ', ऐसा करते हैं।
दादाश्री : हाँ, यह सही है। पर जो अंतिम मुक्ति है, वह सेकन्डरी स्टेज है। पर पहले स्टेज में, पहला मोक्ष यानी संसारी दुःख का अभाव बर्ते। संसार के दुःख में भी दुःख लगे नहीं, उपाधि में भी समाधि रहे. वह पहला मोक्ष। और फिर यह देह छूटने पर आत्यंतिक मोक्ष है। पर पहला मोक्ष यहाँ होना चाहिए। मेरा मोक्ष हो ही गया है न! संसार में रहने पर भी संसार छुए नहीं, ऐसा मोक्ष हो जाना चाहिए। इस अक्रम विज्ञान से ऐसा हो सकता है।
जीते जी ही मुक्ति ! प्रश्रकर्ता : जो मुक्ति या मोक्ष है, वह जीते जी मुक्ति है या मरने के पश्चात् की मुक्ति है ?
दादाश्री : मरने के पश्चात् की मुक्ति किस काम की ? मरने के बाद मुक्ति होगी, ऐसा कहकर लोगों को फँसाते हैं। अरे, मुझे यहीं कुछ दिखा न! स्वाद तो चखा कुछ, कुछ प्रमाण तो बता। वहाँ मोक्ष होगा, उसका क्या ठिकाना ? ऐसा उधारिया मोक्ष हमें क्या करना ? उधार में बरक़त नहीं होती। इसलिए कैश (नक़द) ही अच्छा। हमारी यहाँ जीते
मोक्ष यानी सनातन सुख ! प्रश्रकर्ता : मोक्ष पाकर क्या करना ? दादाश्री : कुछ लोग मुझे मिलने पर कहते हैं कि मुझे मोक्ष नहीं
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मैं कौन हूँ ?
जी मुक्ति होनी चाहिए, जैसे जनक राजा की मुक्ति आपने नहीं सुनी ? प्रश्नकर्ता सुनी है।
(८) अक्रम मार्ग क्या है ?
है ?
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अक्रम ज्ञान से अनोखी सिद्धि !
प्रश्नकर्ता : पर इस संसार में रहते हुए आत्मज्ञान ऐसे मिल सकता
दादाश्री : हाँ, ऐसा रास्ता है। संसार में रहकर इतना ही नहीं, पर वाइफ के साथ रहते हुए भी आत्मज्ञान मिल सके, ऐसा है। केवल संसार में रहना ही नहीं, पर बेटे-बेटियों को ब्याहकर, सभी कार्य करते हुए आत्मज्ञान हो सकता है। मैं संसार में रहकर ही आपको यह करवा देता हूँ। संसार में, अर्थात सिनेमा देखने जाना आदि आपको सभी छूट देता हूँ। बेटे-बेटियों को ब्याहना और अच्छे कपड़े पहनकर ब्याहना । फिर इससे ज्यादा और क्या गारन्टी चाहते हैं ?
प्रश्नकर्ता : इतनी सारी छूट मिले, तब तो ज़रूर आत्मा में रह सकते हैं।
दादाश्री : सारी छूट ! यह अपवाद मार्ग है। आपको कुछ मेहनत नहीं करनी है। आपको आत्मा भी आपके हाथों में दे देंगे, उसके बाद आत्मा की रमणता में रहिए और इस लिफ्ट में बैठे रहिए। आपको और कुछ भी नहीं करना है। फिर आपको कर्म ही नहीं बँधेंगे। एक ही जन्म के कर्म बँधेंगे, वे भी मेरी आज्ञा के पालन के ही हमारी आज्ञा में रहना इसलिए जरूरी है कि लिफ्ट में बैठते समय यदि हाथ इधर-उधर करे तो मुश्किल में पड़ जाये न !
प्रश्नकर्ता : यानी अगला जन्म होगा जरूर ?
दादाश्री : पिछला जन्म भी था और अभी अगला जन्म भी है पर यह ज्ञान ऐसा है कि अब एक-दो जन्म ही बाकी रहते हैं। पहले अज्ञान
मैं कौन हूँ ?
से मुक्ति हो जाती है। फिर एक-दो जन्म में अंतिम मुक्ति मिल जायेगी । एक जन्म तो शेष रहे, यह काल ऐसा है।
२४
आप एक दिन मेरे पास आना। हम एक दिन तय करेंगे तब आपको आना है। उस दिन सभी की रस्सी पीछे से काट देते हैं (स्वरूप के अज्ञान रूपी रस्सी का बंधन दूर करते है)। रोज़ रोज़ नहीं काटना। रोज़ तो सभी बातें सत्संग की करते हैं, लेकिन एक दिन तय करें उस दिन ब्लेड से ऐसे रस्सी काट देते हैं (ज्ञानविधि से स्वरूपज्ञान प्राप्ति करवाते हैं) और कुछ नहीं। फिर तुरंत ही आप समझ जायेंगे कि यह सब खुल गया। यह अनुभव होने पर तुरंत ही कहे कि मुक्त हो गया । अर्थात मुक्त हुआ, ऐसा भान होना चाहिए। मुक्त होना, यह कोई गप्प नहीं है। यानी हम आपको मुक्त करा देते हैं।
जिस दिन यह 'ज्ञान' देते हैं उस दिन क्या होता है ? ज्ञानाग्नि से उसके जो कर्म हैं, वे भस्मीभूत हो जाते हैं। दो प्रकार के कर्म भस्मीभूत हो जाते हैं और एक प्रकार के कर्म बाकी रहते हैं। जो कर्म भापरूप हैं, उनका नाश हो जाता है। और जो कर्म पानी स्वरूप हैं, उनका भी नाश हो जाता है पर जो कर्म बर्फ स्वरूप हैं, उनका नाश नहीं होता है। बर्फ स्वरूप जो कर्म है, उन्हें भोगना ही पड़ता है। क्योंकि वे जमे हुए हैं। जो कर्म फल देने के लिए तैयार हो गया है, वह फिर छोड़ता नहीं । पर पानी और भाप स्वरूप जो कर्म हैं, उन्हें ज्ञानाग्नि उड़ा देती है। इसलिए ज्ञान पाते ही लोग एकदम हल्के हो जाते हैं, उनकी जागृति एकदम बढ़ जाती है। क्योंकि जब तक कर्म भस्मीभूत नहीं होते तब तक जागृति बढ़ती ही नहीं है मनुष्य की। जो बर्फ स्वरूप कर्म हैं वे तो हमें भोगने ही रहें। और वे भी सरल रीति से कैसे भोगें, उसके सब रास्ते हमने बताये हैं कि, “भाई, यह 'दादा भगवान के असीम जय जयकार हो बोलना', त्रिमंत्र बोलना, नव कलमें बोलना। "
हम ज्ञान देते हैं, उससे कर्म भस्मीभूत हो जाते हैं और उस समय कई आवरण टूट जाते हैं। तब भगवान की कृपा होने के साथ ही वह खुद जागृत हो जाता है। वह जागृति फिर जाती नहीं, जागने के पश्चात वह
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मैं कौन हूँ ?
जाती नहीं है। निरंतर जागृत रह सकते हैं। यानी निरंतर प्रतीति रहेगी ही । प्रतीति कब रहे ? जागृति हो तो प्रतीति रहे। पहले जागृति, फिर प्रतीति । फिर अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति ये तीनों रहेंगे। प्रतीति सदा के लिए रहेगी। लक्ष्य तो किसी किसी समय रहेगा। कुछ धंधे में या किसी काम में लगे कि फिर से लक्ष्य चूक जायें और काम खत्म होने पर फिर से लक्ष्य में आ जायें। और अनुभव तो कब हो, कि जब काम से, सबसे निवृत होकर एकांत में बैठे हों तब अनुभव का स्वाद आये । यद्यपि अनुभव तो बढ़ता ही रहता है, क्योंकि पहले चन्दूलाल क्या थे और आज चन्दूलाल क्या हैं, वह समझ में आता है। तो यह परिवर्तन कैसे ? आत्म-अनुभव से पहले देहाध्यास का अनुभव था और अब यह आत्म-अनुभव है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा का अनुभव हो जाने पर क्या होता है ?
दादाश्री : आत्मा का अनुभव हो गया, यानी देहाध्यास छूट गया । देहाध्यास छूट गया, यानी कर्म बंधना रुक गया। फिर और क्या चाहिए ? आत्मा - अनात्मा के बीच भेद - रेखा !
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यह अक्रम विज्ञान है, इसलिए इतनी जल्दी सम्यक्त्व होता है। वर्ना क्रमिक मार्ग में तो, आज सम्यक्त्व हो सके ऐसा है ही नहीं। यह अक्रम विज्ञान तो बहुत उच्च कोटि का विज्ञान है । इसलिए आत्मा और अनात्मा के बीच यानी आपकी और परायी चीज़ ऐसे दोनों का विभाजन कर देता है। 'यह' हिस्सा आपका और 'यह' आपका नहीं, और बीच में लाइन ऑफ डिमार्केशन, भेद-रेखा लगा दूँ वहाँ पर । फिर पड़ौसी के खेत की भिंडी हम नहीं खा सकते न ?
मार्ग 'क्रम' और 'अक्रम' !
तीर्थंकरों का जो ज्ञान है वह क्रमिक ज्ञान है। क्रमिक यानी सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना । ज्यों-ज्यों परिग्रह कम करते जायें, त्यों-त्यों मोक्ष के निकट पहुँचाये, वह भी लम्बे अरसे के बाद, और यह अक्रम विज्ञान
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मैं कौन हूँ ?
यानी क्या ? सीढ़ियाँ नहीं चढ़नी, लिफ्ट में बैठ जाना और बारहवीं मंजिल पर चढ़ जाना, ऐसा यह लिफ्ट मार्ग निकला है। जो इस लिफ्ट में बैठ गये, उनका कल्याण हो गया। मैं तो निमित्त हूँ । इस लिफ्ट में जो बैठ गये, उसका हल निकल आया न! हल तो निकालना ही होगा न ? हम मोक्ष में जानेवाले ही हैं, उस लिफ्ट में बैठे होने का प्रमाण तो होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए ? उसका प्रमाण यानी क्रोध-मानमाया-लोभ नहीं हो, आर्तध्यान - रौद्रध्यान नहीं हो। यानी पूरा काम हो गया न ?
जो 'मुझे' मिला वही पात्र !
प्रश्नकर्ता यह मार्ग इतना आसान है, तो फिर कोई अधिकार (पात्रता) जैसा देखना ही नहीं ? हर किसी के लिए यह संभव है ?
दादाश्री : लोग मुझे पूछते है किं, मैं अधिकारी (पात्र) हूँ क्या ? तब मैंने कहा, 'मुझे मिला, इसलिए तू अधिकारी ।' यह मिलना, वो सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स है इसके पीछे। इसलिए हमें जो कोई मिला, उसे अधिकारी समझा जाता है। जो नहीं मिला वह अधिकारी नहीं है। वह किस आधार पर मिलता है ? वह अधिकारी है, इसी आधार पर तो मुझसे मिलता है। मुझसे मिलने पर भी यदि उसे प्राप्ति नहीं होती, तो फिर उसका अंतराय कर्म बाधा रूप है।
क्रम में 'करने का' और अक्रम में...
एक भाई ने एक बार प्रश्न किया कि क्रम और अक्रम में फर्क क्या है ? तब मैंने बताया कि, क्रम माने जैसा कि सभी कहते हैं कि यह उलटा (गलत ) छोड़िए और सीधा (सही) कीजिए। सभी यही कहा करे बार-बार, उसका नाम क्रमिक मार्ग । क्रम माने सब छोड़ने को कहें, यह कपट- लोभ छोड़िए और अच्छा कीजिए। यही आपने देखा न आज तक ? और यह अक्रम माने, करना नहीं, करोमि करोसि करोति नहीं! जेब काटने पर अक्रम में कहेंगे, 'उसने काटी नहीं और मेरी कटी नहीं' और क्रम में तो ऐसा कहे कि, 'उसने काटी और मेरी कटी।'
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
यह अक्रम विज्ञान लॉटरी के समान है। लॉटरी में इनाम मिले, उसमें उसने कोई मेहनत की थी? रुपया उसने भी दिया था और औरों ने भी रुपया दिया था, पर उसका चल निकला। ऐसे यह अक्रम विज्ञान, तुरंत ही मोक्ष दे देता है, नक़द ही!
अक्रम से आमूल परिवर्तन ! अक्रम विज्ञान तो बहुत बड़ा अजूबा कहलाता है। यहाँ आत्मज्ञान' लेने के बाद दूसरे दिन से मनुष्य में परिवर्तन हो जाता है। यह सुनते ही लोगों को यह विज्ञान स्वीकार हो जाता है और यहाँ खिंचे चले आते हैं।
अक्रम मार्ग, विश्वभर में ! यह संयोग तो बहुत उच्च कोटि का बना है। ऐसा अन्य किसी जगह हुआ नहीं है। एक ही मनुष्य, 'दादाजी' अकेले ही कार्य कर सकें, दूसरा कोई नहीं कर सकता।
प्रश्नकर्ता : बाद में भी दादाजी की कृपा रहेगी न ? आपके बाद क्या होगा?
दादाश्री : यह मार्ग तो चलता रहेगा। मेरी इच्छा है कि कोई भी तैयार हो जाये, पीछे मार्ग चलानेवाला चाहिए न ?
बोलती है। सच बात का अमल देर से होता है और झूठी बात का अमल जल्दी होता है।
अक्रम द्वारा स्त्री का भी मोक्ष ! लोग कहते हैं कि मोक्ष पुरुष का ही होता है, स्त्रियों का मोक्ष नहीं। इस पर मैं उनसे कहता हूँ कि स्त्रियों का भी मोक्ष होता है। क्यों नहीं होगा? तब कहते है, उसकी कपट की और मोह की ग्रंथि बहुत बड़ी है। पुरुष की छोटी गाँठ होती है, तो उनकी उतनी बड़ी सूरन (ज़मीकंद) जितनी होती है।
स्त्री भी मोक्ष में जायेगी। भले ही सभी मना करते हों, पर स्त्री मोक्ष के लिए लायक है। क्योंकि वह आत्मा है और पुरुषों के साथ संपर्क में आयी है, इसलिए उसका भी हल निकलेगा, पर स्त्री प्रकृति में मोह बलवान होने से ज्यादा वक्त लगेगा।
_काम निकाल लें !
प्रश्रकर्ता : चाहिए।
दादाश्री : मेरी इच्छा पूर्ण हो जायेगी।
प्रश्नकर्ता : 'अक्रम विज्ञान' यदि चालू रहेगा, तो वह निमित्त से चालू रहेगा!
दादाश्री : 'अक्रम विज्ञान' चालू ही रहेगा। अक्रम विज्ञान सालदो साल ऐसे ही चलता रहा तो सारी दुनिया में इसकी ही बातें चलेंगी
और पहँच जायेगा चरम तक (फैल जायेगा सभी जगह)। क्योंकि जैसे झूठी बात सिर चढ़कर बोलती है, उसी तरह सच बात भी सिर चढ़कर
अपना काम निकाल लेना, जब ज़रूरत हो तब। ऐसा भी नहीं है कि आप अवश्य आना ही। आपको ठीक लगे तो आना। और संसार पसंद हो, पुसाता हो (अँचता हो), तब तक वह व्यापार चलाते रहना। हमें ऐसा नहीं है कि आप ऐसा ही कीजिए। और हम आपको खत भी लिखने वाले नहीं। यहाँ पर आये हों तो आपसे कहेंगे कि, 'भाई, लाभ उठाइए।' इतना ही कहेंगे आपको। हजारों सालों से ऐसा विज्ञान प्रकट नहीं हुआ है। इसलिए मैं कहता हूँ कि पीछे जो भी होना हो सो हो, पर यह काम निकाल लेने जैसा है।
(९) 'ज्ञानी पुरुष' कौन ?
संत पुरुष : ज्ञानी पुरुष ! प्रश्नकर्ता : ये जो संत हो गये सभी, उनमें और ज्ञानी में कितना अंतर?
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
दादाश्री : संत किसका नाम, कि जो बराई छडवाये और अच्छाई सिखाये। गलत करना छुड़वाये और अच्छा करना सिखाये, उसका नाम
संत।
प्रश्नकर्ता : अर्थात पापकर्म से बचाये वह संत ?
दादाश्री : हाँ, पापकर्म से बचाये वह संत, पर पाप-पुण्य, दोनों से बचाये, उसका नाम ज्ञानी पुरुष।
संत पुरुष सही राह बताये और ज्ञानी पुरुष मुक्ति दिलाये। संत तो पथिक कहलाते हैं। पथिक माने वह खुद चले और दूसरे पथिक से कहे, 'चलो, तुम मेरे साथ।' और ज्ञानी पुरुष तो आखिरी स्टेशन कहलायें, वहाँ तो अपना काम ही निकल जाये।
सच्चा, बिलकुल सच्चा संत कौन ? जो ममता रहित हो। और जो दूसरे हैं, वे थोड़ी बहुत ममतावाले होते हैं। और सच्चा ज्ञानी कौन ? जिसे अहंकार और ममता दोनों नहीं होते।
इसलिए संतों को ज्ञानी पुरुष नहीं कहा जा सकता। संतों को आत्मा का भान नहीं होता। वे संत भी जब कभी ज्ञानी पुरुष को मिलेंगे, तब उनका हल निकलेगा। संतों को भी इनकी आवश्यकता है। सब को यहाँ आना पड़े, छुटकारा ही नहीं न! प्रत्येक की इच्छा यही होती है।
___ ज्ञानी पुरुष दुनिया का अजूबा कहलाते हैं। ज्ञानी पुरुष प्रकट दिया कहलाते हैं।
ज्ञानी पुरुष की पहचान ! प्रश्नकर्ता : ज्ञानी पुरुष को किस तरह पहचानें ?
दादाश्री : कैसे पहचानेंगे? ज्ञानी पुरुष तो बिना कुछ किए ही पहचाने जायें ऐसे होते हैं। उनकी सुगंध ही, पहचानी जाये ऐसी होती है। उनका वातावरण कुछ और ही होता है। उनकी बानी भी कुछ और प्रकार की होती है। उनके शब्दों से पता चल जाये। अरे, उनकी आँखें
देखते ही मालूम हो जाये। ज्ञानी के पास भारी विश्वसनीयता होती है, जबरदस्त विश्वसनीयता! और उनका हर शब्द शास्त्ररूप होता है, यदि समझ में आये तो। उनके वाणी-वर्तन और विनय मनोहर होते हैं, मन का हरण करनेवाले होते हैं। ऐसे बहुत सारे लक्षण होते हैं।
ज्ञानी पुरुष में बुद्धि लेश मात्र नहीं होती! वे अबुध होते हैं। बुद्धि लेश मात्र नहीं हो ऐसे लोग कितने होंगे? कभी कभार किसी का जन्म होता है ऐसा, और तब लोगों का कल्याण हो जाता है। तब लाखों मनुष्य (संसार सागर) तैर कर पार निकल जाते हैं। ज्ञानी पुरुष बिना अहंकार के होते हैं, ज़रा सा भी अहंकार नहीं होता है। वैसे तो अहंकार रहित कोई मनुष्य इस संसार में होता ही नहीं। मात्र ज्ञानी पुरुष ही अहंकार रहित होते हैं।
ज्ञानी पुरुष तो हजारों सालों में एकाध पैदा होते हैं। बाकी, संत, शास्त्रज्ञानी तो अनेकों होते हैं। हमारे यहाँ शास्त्र के ज्ञानी बहुत सारे हैं पर आत्मा के ज्ञानी नहीं हैं। जो आत्मा के ज्ञानी होंगे न, वे तो परम सुखी होंगे, उनको दुःख किंचित्मात्र नहीं होगा। इसलिए वहाँ पर अपना कल्याण हो जाये। जो खुद अपना कल्याण करके बैठे हों, वे ही हमारा कल्याण कर सकें। खुद पार उतरे हों, वे हमें तार सकते है। वर्ना जो खुद डूब रहा हो, वह कभी भी नहीं तारेगा।
(१०) 'दादा भगवान' कौन ? _ 'मैं' और 'दादा भगवान', नहीं एक रे ! प्रश्नकर्ता : तो आप भगवान किस तरह कहलवाते हैं ?
दादाश्री : मैं खुद भगवान नहीं हूँ। भगवान को, 'दादा भगवान' को तो मैं भी नमस्कार करता हूँ। मैं खुद तीन सौ छप्पन डिग्री पर हूँ और 'दादा भगवान' तीन सौ साठ डिग्री पर हैं। मेरी चार डिग्री कम है, इसलिए मैं 'दादा भगवान' को नमस्कार करता हूँ।
प्रश्नकर्ता : वह किस लिए ?
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
दादाश्री : क्योंकि मुझे तो चार डिग्री पूरी करनी है। मुझे पूरी तो करनी पड़ेगी न? चार डिग्री कम रही, नापास हुआ पर पास हुए बगैर छुटकारा है ?
प्रश्नकर्ता : आपको भगवान होने का मोह है क्या ?
दादाश्री : मुझे तो भगवान होना बहुत बोझरूप लगता है। मैं तो लघुतम पुरुष हूँ। इस दुनिया में मुझ से कोई लघु नहीं है ऐसा लघतम हूँ। अर्थात भगवान होना मुझे बोझ सा लगे, उलटे शरम आती है।
प्रश्नकर्ता : भगवान नहीं होना हो तो फिर यह चार डिग्री पूरी करने का पुरुषार्थ किस लिए करना है ?
दादाश्री : वह तो मोक्ष में जाने के लिए। मुझे भगवान होकर क्या करना है ? भगवान तो, भगवत् गुण धारण करते हों, वे सभी भगवान होते हैं। 'भगवान' शब्द विशेषण है। कोई भी मनुष्य उसके योग्य हो, तो लोग उसे भगवान कहते ही हैं।
यहाँ प्रकट हुए, चौदह लोक के नाथ ! प्रश्नकर्ता : 'दादा भगवान' शब्द प्रयोग किस के लिए किया गया
नहीं आयेगा। आपकी समझ में आया, 'दादा भगवान' क्या हैं ?
यह दिखाई देते हैं, वे 'दादा भगवान' नहीं हैं। आप, यह जो दिखाई देते हैं, उन्हें 'दादा भगवान' समझते होंगे, नहीं ? पर यह दिखाई देने वाले तो भादरण के पटेल हैं। मैं 'ज्ञानी पुरुष' हूँ और 'दादा भगवान' तो भीतर बैठे हैं, भीतर प्रकट हुए हैं, वे हैं। चौदह लोक के नाथ प्रकट हुए हैं, उन्हें मैंने खुद देखा है, खुद अनुभव किया है। इसलिए मैं गारन्टी से कहता हूँ कि वे भीतर प्रकट हुए हैं।
और यह बात कौन कर रहा है ? 'टेपरिकार्डर' बात कर रहा है। क्योंकि 'दादा भगवान' में बोलने की शक्ति नहीं है और यह 'पटेल' तो टेपरिकार्डर के आधार पर बोलते हैं। क्योंकि 'भगवान'
और 'पटेल' दोनों अलग हुए, इसलिए वहाँ पर अहंकार कर नहीं सकते। यह टेपरिकार्डर बोलता है, उसका मैं ज्ञाता-द्रष्टा रहता हूँ। आपका भी टेपरिकार्डर बोलता है, पर आपके मन में 'मैं बोला' ऐसा गर्वरस (अहंकार) आपको उत्पन्न होता है। बाकी, हमें भी दादा भगवान को नमस्कार करने पड़ते हैं। हमारा दादा भगवान के साथ जुदापन (भिन्नता) का व्यवहार ही है। व्यवहार ही जुदापन का है। पर लोग ऐसा समझते हैं कि ये खुद ही दादा भगवान हैं। नहीं, खुद दादा भगवान कैसे हो सकते हैं ? ये तो पटेल हैं, भादरण के।
(११) सीमंधर स्वामी कौन ?
तीर्थंकर भगवान श्री सीमंधर स्वामी ! प्रश्नकर्ता : सीमंधर स्वामी कौन हैं, यह समझाने की कृपा करेंगे?
दादाश्री : सीमंधर स्वामी वर्तमान में तीर्थंकर साहिब हैं। वे दूसरे क्षेत्र में हैं। जैसे ऋषभदेव भगवान हुए, महावीर भगवान हुए ऐसे ही सीमंधर स्वामी तीर्थंकर हैं। जो आज भी महाविदेह क्षेत्र में विचरते हैं।
बाकी, महावीर भगवान तो सब बता कर गये हैं। पर लोगों की समझ टेढ़ी है तो क्या हो सकता है ? इसलिए फल प्राप्त नहीं होता है न?
दादाश्री : 'दादा भगवान' के लिए। मेरे लिए नहीं, मैं तो ज्ञानी पुरुष हूँ।
प्रश्नकर्ता : कौन से भगवान ?
दादाश्री : 'दादा भगवान', जो चौदह लोक के नाथ हैं। वह आप में भी हैं, पर आप में प्रकट नहीं हुए। आप में अव्यक्त रूप से रहे हैं और यहाँ व्यक्त हुए हैं। व्यक्त हुए, वे फल दें, ऐसे हैं। एक बार भी उनका नाम लें तो भी काम निकल जाये ऐसा है। पर पहचान कर बोलने पर तो कल्याण हो जाये और सांसारिक चीज़ों की यदि अड़चन हो तो वह भी दूर हो जाये। पर उनमें लोभ मत करना और लोभ करने गये तो अंत ही
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मैं कौन हूँ ?
भगवान महावीर कह गये थे कि 'अब चौबीसी बंद होती है, अब (भरत क्षेत्र में) तीर्थंकर नहीं होनेवाले, इसलिए महाविदेह क्षेत्र में जो तीर्थंकर हैं, उनको भजना । वहाँ पर वर्तमान तीर्थंकर हैं, उनकी भजना करना।' पर यह तो अभी लोगों के लक्ष्य में ही नहीं है। और इन चौबीस को ही तीर्थंकर कहते हैं, सब लोग !
ख्याल में तो सीमंधर स्वामी ही !
लोग मुझ से कहते हैं कि आप सीमंधर स्वामी की भजना क्यों करवाते हैं ? चौबीस तीर्थंकरों की क्यों नहीं करवाते ? मैंने कहा, चौबीस तीर्थंकरों का तो बोलते ही हैं पर हम रीति के अनुसार बोलते हैं। सीमंधर स्वामी का ज्यादा बोलते हैं। वे वर्तमान तीर्थंकर कहलाते हैं और यह 'नमो अरिहंताण' उन्हें ही पहुँचता है। नवकार मंत्र बोलते समय सीमंधर स्वामी ख्याल में रहने चाहिए, तभी आपका नवकार मंत्र शुद्ध हुआ कहलाये।
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ऋणानुबंध, भरत क्षेत्र का !
प्रश्नकर्ता : सीमंधर स्वामी का वर्णन कीजिए ।
दादाश्री : सीमंधर स्वामी की आयु अभी पौने दो लाख वर्ष की है। वे भी ऋषभदेव भगवान के जैसे हैं। ऋषभदेव भगवान सारे ब्रह्मांड के भगवान कहलाते हैं। इसी प्रकार ये भी पूरे ब्रह्मांड के भगवान हैं। वे हमारे यहाँ नहीं है पर दूसरी भूमि में, महाविदेह क्षेत्र में हैं कि जहाँ मनुष्य जा नहीं सकता। ज्ञानी ( को भगवान से अगर किसी प्रश्न का उत्तर पूछना हो तो) अपनी शक्ति वहाँ भेजते हैं, जो पूछकर आती है। वहाँ स्थूल देह से नहीं जा सकते, पर वहाँ जन्म होने पर जा सकते हैं। यदि यहाँ से वहाँ की भूमि के लिए लायक हो गया तो वहाँ जन्म भी होता है।
हमारे यहाँ भरत क्षेत्र में तीर्थंकरों का जन्म होना फिलहाल बंद हो गया है, ढाई हजार साल से । तीर्थंकर यानी चरम, 'फुल मून' (पूर्ण चंद्र) ।
मैं कौन हूँ ?
पर वहाँ महाविदेह क्षेत्र में सदा ही तीर्थंकर रहते हैं। सीमंधर स्वामी वहाँ पर आज भी जीवित हैं। हमारे जैसी ही देह है, सब कुछ है।
३४
(१२) 'अक्रम मार्ग' खुला ही है !
पीछे जानियों की वंशावली !
हम हमारे पीछे ज्ञानियों की वंशावली छोड़ जायेंगे। हमारे उत्तराधिकारी छोड़ जायेंगे और उसके बाद ज्ञानियों की लिंक चालू रहेगी। इसलिए सजीवन मूर्ति खोजना। उसके बगैर हल निकलनेवाला नहीं है।
मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करने वाला हूँ। पीछे कोई चाहिए कि नहीं चाहिए ? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न ?
जिसे जगत स्वीकारेगा, उसी का चलेगा !
प्रश्नकर्ता: आप कहते हैं कि मेरे पीछे चालीस-पचास हज़ार रोनेवाले होंगे मगर शिष्य एक भी नहीं होगा। यानी आप क्या कहना चाहते हैं ?
दादाश्री : मेरा शिष्य कोई नहीं होगा। यह कोई गद्दी नहीं है। गद्दी हो तो वारिस हो न ! कोई रिश्तेदार के रूप में वारिस बनने आये ! यहाँ तो जो स्वीकार्य होगा, उसका चलेगा। जो सभी का शिष्य बनेगा, उसका काम होगा। यहाँ तो लोग जिसका स्वीकार करेंगे, उसका चलेगा। जो लघुतम होगा, उसको जगत स्वीकार करेगा ।
(१३) आत्मदृष्टि होने के पश्चात.....
आत्मप्राप्ति के लक्षण !
'ज्ञान' मिलने से पहले आप चन्दूभाई थे और अब ज्ञान लेने के बाद शुद्धात्मा हुए, तो अनुभव में कुछ फर्क लगता है ?
प्रश्नकर्ता: हाँ जी ।
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मैं कौन हूँ ?
है ?
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रहता ।
दादाश्री : 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यह भान आपको कितने समय रहता
प्रश्नकर्ता : एकांत में अकेले बैठे हों तब ।
दादाश्री : हाँ। फिर कौन सा भाव रहता है ? आपको 'मैं चन्दूभाई हूँ' ऐसा भाव होता है कभी ? आपको रियली 'मैं चन्दूभाई हूँ' ऐसा भाव किसी दिन हुआ था क्या ?
प्रश्नकर्ता: ज्ञान लेने के बाद नहीं हुआ।
दादाश्री : तब आप शुद्धात्मा ही हैं। मनुष्य को एक ही भाव रह सकता है। यानी 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यह आपको निरंतर रहता ही है। प्रश्नकर्ता: पर कई बार व्यवहार में शुद्धात्मा का ख़याल नहीं
दादाश्री : तो 'मैं चन्दूभाई हूँ' वह ध्यान रहता है ? तीन घण्टे शुद्धात्मा का ध्यान नहीं रहा और तीन घण्टे के बाद पूछें, 'आप चन्दूभाई है या शुद्धात्मा हैं ? तब क्या कहेंगे ?
प्रश्नकर्ता: शुद्धात्मा ।
दादाश्री : यानी वह ध्यान था ही। एक सेठ हो, उसने शराब पी रखी हो, उस समय ध्यान सारा चला जाये, पर शराब का नशा उतरने पर... ?
प्रश्नकर्ता: फिर जागृत हो जाये।
दादाश्री : ऐसे यह भी दूसरा, बाहर का असर है।
मेरे पूछने पर कि वास्तव में 'चन्दूभाई' हैं कि 'शुद्धात्मा' हैं ? आप कहें कि शुद्धात्मा । दूसरे दिन आप से पूछता हूँ कि 'आप वास्तव में कौन हैं ?' तब आप कहें कि 'शुद्धात्मा'। पांच दिनों तक मैं पूछता रहूँ, इसके बाद मैं समझ जाऊँ कि आपके मोक्ष की चाबी मेरे पास है।
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आया अपूर्व भान !
श्रीमद् राजचंद्र जी क्या कहते हैं कि,
'सद्गुरु के उपदेश से आया अपूर्व भान, निजपद, निज मांही मिला, दूर भया अज्ञान ।'
मैं कौन हूँ ?
पहले देहाध्यास का ही भान था। पहले देहाध्यास रहित भान हमें
था नहीं। वह अपूर्व भान, वह आत्मा का भान हमें हुआ। जो 'खुद' का निजपद था कि 'मैं चन्दूभाई हूँ' ऐसा बोलता था, वह 'मैं' अब निज मांही बैठ गया। जो निज पद था, वह निज में बैठ गया और जो अज्ञान था, 'मैं चन्दूभाई हूँ' यह अज्ञान दूर हो गया ।
यह देहाध्यास कहलाये !
जगत देहाध्यास से मुक्त नहीं हो सकता और अपने स्वरूप में नहीं रह सकता। आप स्वरूप में रहे यानी अहंकार गया, ममता गयी। 'मैं चन्दूभाई हूँ' यह देहाध्यास कहलाये और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यह लक्ष्य बैठा, तब से किसी तरह का अध्यास नहीं रहा । अब कुछ रहा नहीं। फिर भी भूलचूक होने पर थोड़ी घुटन महसूस होगी।
शुद्धात्मा पद शुद्ध ही !
यह 'ज्ञान' लेने के बाद पहले जो भ्राँति थी कि 'मैं करता हूँ', वह भान टूट गया। इसलिए शुद्ध ही हूँ, यह भान रहने के लिए 'शुद्धात्मा' कहा। किसी के साथ कुछ भी हो जाये, 'चन्दूभाई' गालियाँ दे, फिर भी आप शुद्धात्मा हैं। फिर 'हमें' चन्द्रभाई से कहना चाहिए कि 'भैया, किसी को दुःख पहुँचे ऐसा अतिक्रमण क्यों करते हैं ? इसलिए प्रतिक्रमण करो।'
किसी को दुःख पहुँचे ऐसा कुछ कह दिया हो, वह 'अतिक्रमण किया' कहलाये । उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए।
प्रतिक्रमण, यानी आपकी समझ में आये, उस प्रकार उसकी
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
माफ़ी माँगनी है। दोष किया यह मेरी समझ में आया और अब फिर से ऐसा दोष नहीं करूँगा ऐसा निश्चय करना चाहिए। ऐसा किया वह गलत किया, ऐसा नहीं होना चाहिए, फिर ऐसा दोबारा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना। फिर भी दूसरी बार हो जाये, वही दोष हो जाये तो फिर से पछतावा करना। जितने दोष दिखाई दिये, उनका पछतावा किया तो उतना कम हो गये। ऐसा करते करते आखिर आहिस्ता आहिस्ता खतम हो जायेगा।
प्रश्नकर्ता : किसी व्यक्ति के प्रतिक्रमण किस तरह करने चाहिए ?
दादाश्री : मन-वचन-काया, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म, (उस व्यक्ति का) नाम और उसके नाम की सर्व माया से, भिन्न ऐसे उसके शुद्धात्मा को याद करना, और फिर जो भी भूलें हुई हैं उन्हें याद करना (आलोचना), उन भूलों का मुझे पश्चाताप होता है और उसके लिए मुझे क्षमा करना (प्रतिक्रमण), फिर से ऐसी भूलें नहीं होंगी ऐसा दृढ़ निश्चय करता हूँ, ऐसा तय करना (प्रत्याख्यान)। 'हम' खुद 'चन्दूभाई' के ज्ञाता-द्रष्टा रहें और जानें कि 'चन्दूभाई' ने कितने प्रतिक्रमण किये, कितने सुन्दर किये और कितनी बार किये।
बार-बार कौन सचेत करता है ? प्रज्ञा ! ज्ञान प्राप्ति के बिना प्रज्ञा की शुरुआत नहीं होती है। या फिर सम्यक्त्व प्राप्त हुआ हो तो प्रज्ञा की शुरुआत होती है। सम्यक्त्व में प्रज्ञा की शुरुआत कैसे होती है ? दूज के चन्द्रमा जैसी शुरुआत होती है, जबकि अपने यहाँ तो पूर्ण प्रज्ञा उत्पन्न होती है। फल (पर्ण) प्रज्ञा यानी वह फिर मोक्ष में ले जाने के लिए ही चेताती है। भरत राजा को तो चेताने वाले रखने पड़े थे, नौकर रखने पड़े थे। जो हर पंद्रह मिनट पर आवाज़ देते कि 'भरत राजा! चेत, चेत, चेत!!!' तीन बार आवाज़ लगाते थे। देखिये, आपको तो भीतर से ही प्रज्ञा चेताती है। प्रज्ञा निरंतर चेताती रहे. कि 'ऐ. ऐसे नहीं'। सारा दिन चेताती रहे और यही है आत्मा का अनुभव, निरंतर, सारा दिन ही आत्मा का अनुभव!
अनुभव भीतर होगा ही ! जिस दिन ज्ञान देते हैं, उस रात का जो अनुभव है, वह जाता नहीं है। किस प्रकार जाये फिर? हमने जिस दिन ज्ञान दिया था न, उस रात का जो अनुभव था वह सदा के लिए है। पर पुन: आपके कर्म घेर लेते हैं। पूर्वकर्म, जो भुगतने शेष हैं, वे 'मांगनेवाले' घेर लेते हैं, उसका मैं क्या करूँ?
प्रश्नकर्ता : दादाजी, पर अब इतना भोगना नहीं पड़ता।
दादाश्री: वह नहीं लगता यह अलग बात है. पर माँगनेवाले अधिक हों, तो उसे अधिक घेर ले। पाँच वाले को पाँच, दो वाले को दो और बीसवाले को बीस। मैंने तो आपको शुद्धात्मा पद में बिठा दिया, पर फिर माँगनेवाले दूसरे दिन आयें तब जरा सफोकेशन होगा।
प्रज्ञा भीतर से चेताये ! यह विज्ञान है इसलिए हमें इसका अनुभव होता है और भीतर से ही चेतायेगा। वहाँ (क्रमिक में) तो हमें करना पड़े और यहाँ भीतर से ही चेताता है।
प्रश्नकर्ता : अब भीतर से चेतावनी मिलती है यह अनुभव हुआ
दादाश्री : अब हमें यह मार्ग मिल गया है और शुद्धात्मा की जो बाउन्डी (सीमा-रेखा) है, उसके पहले दरवाजे में प्रवेश मिल गया है, जहाँ से कोई निकाल बाहर नहीं कर सकता। किसी को वापस निकालने का अधिकार नहीं है, ऐसी जगह आपने प्रवेश पाया है।
अब रहा क्या बाकी? वह क्रमिक विज्ञान है और यह अक्रम विज्ञान है। यह ज्ञान तो वीतरागों का ही है। ज्ञान में अंतर नहीं। हमारे ज्ञान देने के पश्चात आपको आत्म अनुभव हो जाने पर क्या काम बाकी रहता है ? ज्ञानी पुरुष की
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
'आज्ञा' का पालन। 'आज्ञा' ही धर्म और 'आज्ञा' ही तप। और हमारी
आज्ञा संसार (व्यवहार) में जरा सी भी बाधक नहीं होती है। संसार में रहते हुए भी संसार का असर नहीं हो, ऐसा यह अक्रम विज्ञान है।
बाकी यदि एक भव वाला (एकावतारी) होना हो तो हमारे कहे अनुसार आज्ञा में चलिए। तो यह विज्ञान एकावतारी है। यह विज्ञान है फिर भी यहाँ से (भरत क्षेत्र से) सीधे मोक्ष में जा पायें ऐसा (संभव) नहीं है।
मोक्षमार्ग में आज्ञा ही धर्म.... जिसे मोक्ष में जाना हो, उसे क्रियाओं की जरूरत नहीं है। जिसे देवगति में जाना हो, भौतिक सुखों की कामना हो, उसे क्रियाओं की जरूरत है। मोक्ष में जाना हो, उसे तो ज्ञान और ज्ञानी की आज्ञा, इन दो की ही जरूरत है।
मोक्ष मार्ग में तप-त्याग कुछ भी करना होता नहीं है। केवल ज्ञानी पुरुष मिले तो ज्ञानी की आज्ञा ही धर्म और आज्ञा ही तप और यही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है, जिसका प्रत्यक्ष फल मोक्ष है।
_ 'ज्ञानी' के पास रहना ! ज्ञानी के ऊपर कभी प्रेमभाव नहीं आया। ज्ञानी पर प्रेमभाव आये तो, उसी से सारा हल निकल आये। हरेक जन्म में बीबी-बच्चों के अलावा और कुछ होता ही नहीं न!
भगवान ने कहा कि ज्ञानी पुरुष के पास से सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात ज्ञानी पुरुष के पीछे लगे रहना।
प्रश्नकर्ता : किस अर्थ में पीछे लगे रहना ?
दादाश्री : पीछे लगे रहना यानी यह ज्ञान मिलने के पश्चात् और कोई आराधन नहीं होता। पर, यह तो हम जानते हैं कि यह अक्रम है। ये लोग अनगिनत 'फाइलें' लेकर आये हैं। इसलिए आपको फाइलों की
खातिर मुक्त रखा है पर उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि कार्य पूरा हो गया। आज-कल फाइलें बहुत हैं, इसलिए आपको मेरे यहाँ रखू तो आपकी 'फाइलें' बुलाने आयेंगी। इसलिए छूट दी है कि घर जाकर फाइलों का समभाव से निकाल (निपटारा) कीजिए। नहीं तो फिर ज्ञानी के पास ही पड़े रहना चाहिए।
बाकी, हमारे से यदि पूर्ण रूप से लाभ नहीं लिया जाता, तो यह निरंतर रात-दिन खटकना चाहिए। भले ही फाइलें हैं और ज्ञानी पुरुष ने कहा है न, आज्ञा दी है न कि फाइलों का समभाव से निकाल करना, वह आज्ञा ही धर्म है न? वह तो हमारा धर्म है। पर यह खटकते रहना तो चाहिए ही कि ऐसी फाइलें कम हों, ताकि मैं लाभ उठा पाऊँ।
उसको तो महाविदेह क्षेत्र सामने आयेगा ! जिसे शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठ गया हो, वह यहाँ पर भरतक्षेत्र में रह सकता ही नहीं। जिसे आत्मा का लक्ष्य बैठ गया हो, वह महाविदेह क्षेत्र में ही पहुँच जाये, ऐसा नियम है। यहाँ इस दुषमकाल में रह ही नहीं पाये। यह शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठा, वह महाविदेह क्षेत्र में एक जन्म अथवा दो जन्म करके, तीर्थंकर के दर्शन करके मोक्ष में चला जाये, ऐसा आसान, सरल मार्ग है यह ! हमारी आज्ञा में रहना। आज्ञा ही धर्म और आज्ञा ही तप ! समभाव से निकाल(निपटारा) करना होगा। वे जो आज्ञाएँ बतायी हैं, उनमें जितना रह पायें उतना रहें, पूर्ण रूप से रहें तो भगवान महावीर की दशा में रह सकते हैं। आप 'रीयल' और 'रिलेटिव' देखते जायें, तब आपका चित्त दूसरी जगह नहीं भटकेगा, पर उस समय मन में से कुछ निकले तो आप उलझ जाते हैं।
(१४) पाँच आज्ञा की महत्ता !
'ज्ञान' के पश्चात् कौन सी साधना ? प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान के पश्चात् अब किस प्रकार की साधना करनी चाहिए?
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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
दादाश्री: साधना तो, यह पाँच आज्ञा का पालन करते हैं न, वही ! अब और कोई साधना नहीं होती। दूसरी साधना बंधनकर्ता है। यह पाँच आज्ञाएँ छुड़ानेवाली हैं।
समाधि बरतायें, ऐसी आज्ञाएँ ! प्रश्नकर्ता : ये जो पाँच आज्ञाएँ हैं, इसके अलावा और कुछ है ?
दादाश्री : पाँच आज्ञा आपके लिए एक बाड़ हैं, ताकि आपका माल भीतर कोई चुरा न ले। यह बाड़ रखने से आपके भीतर, हमने जो दिया है वह एक्जैक्ट, वहीं का वहीं रहेगा, और बाड़ कमजोर हुई तो कोई अंदर घुसकर बिगाड़ देगा। तब फिर मुझे रिपेयर करने आना पड़ेगा। इसलिए इन पाँच आज्ञाओं में रहें तब तक निरंतर समाधि की हम गारन्टी देते हैं।
मैं पाँच वाक्य आपको प्रोटेक्शन के लिए देता हूँ। यह ज्ञान तो मैंने आपको दिया और 'भेदज्ञान' से 'अलग' भी किया। पर अब वह 'अलग' ही रहे, इसलिए प्रोटेक्शन देता हूँ कि जिससे यह काल जो कलियुग है, इस कलियुग वाले कहीं उसे लूट न लें। 'बोधबीज' उगने पर पानी आदि सब छिड़कना होगा न ? बाड़ करनी होगी कि नहीं करनी होगी?
पालन करना ही है। सवेरे से ही निश्चय करना कि 'पाँच आज्ञा में ही रहना है, पालन करना ही है।' निश्चय किया, तब से हमारी आज्ञा में आ गया, मुझे इतना ही चाहिए। पालन नहीं होता, उसके कॉजेज (कारण) मुझे मालूम हैं। हमें पालन करना है, ऐसा निश्चय ही करना है।
अपने ज्ञान से तो मोक्ष होनेवाला ही है। यदि कोई आज्ञा में रहेगा तो उसका मोक्ष होगा, उसमें दो राय नहीं है। फिर कोई नहीं पालता हो, पर उसने ज्ञान लिया है यदि, तो वह उगे बिना रहनेवाला नहीं है। इसलिए लोग मुझसे कहते हैं, 'ज्ञान पाये हुए कुछ लोग आज्ञा का पालन नहीं करते हैं, उसका क्या ?' मैंने कहा, 'यह तुझे देखने की जरूरत नहीं है, यह मुझे देखने की जरूरत है। ज्ञान मेरे पास से ले गये हैं न। तेरा घाटा तो नहीं हुआ न ?' क्योंकि पाप भस्मीभूत हुए बिना रहते नहीं। हमारे इन पाँच वाक्यों में रहेंगे तो पहुँच पायेंगे। हम निरंतर पाँच वाक्यों में ही रहते हैं और हम जिसमें रहते हैं वही 'दशा' आपको दी है। आज्ञा में रहने पर काम होगा। खुद की समझ से लाख जन्म सिर फोड़ेंगे तो भी कुछ होनेवाला नहीं है। पर यह तो आज्ञा भी खुद की अकल से पालें। फिर, आज्ञा भी समझेंगे अपनी समझ से ही न! इसलिए वहाँ पर भी थोड़ा थोड़ा लीकेज होता रहता है। फिर भी आज्ञा पालन के पीछे उसका अपना भाव तो ऐसा ही है कि 'आज्ञा पालन करना ही है। इसलिए जागृति चाहिए।
आज्ञा पालन करना भूल जायें तो प्रतिक्रमण करना। मनुष्य हैं, भूल तो जायेंगे। पर भूल जाने पर प्रतिक्रमण करना कि 'हे दादाजी, ये दो घंटे भूल गया, आपकी आज्ञा भल गया। पर मुझे तो आज्ञा पालन करना ही है। मुझे क्षमा करें।' तो पिछला सारा माफ। सौ में से सौ मार्क पूरे। इसलिए जिम्मेदारी नहीं रही। आज्ञा में आ जायें तो उसे सारी दुनिया नहीं छू सकती। हमारी आज्ञा का पालन करने पर आपको कुछ स्पर्शेगा नहीं। तो आज्ञा देनेवाले को चिपकेगा? नहीं, क्योंकि परहेतु के लिए है, इसलिए उसे स्पर्शे नहीं और डिज़ोल्व हो जाये।
दृढ़ निश्चय ही कराये पालन, आज्ञा का ! दादाजी की आज्ञा का पालन करना है, यही सबसे बड़ी चीज है। हमारी आज्ञा का पालन करने का निश्चय करना चाहिए। आपको यह नहीं देखना है कि आज्ञा का पालन होता है या नहीं। आज्ञा का पालन जितना हो पाये उतना सही, पर हमें निश्चय करना है कि आज्ञा का पालन करना है।
प्रश्नकर्ता : कम-ज्यादा पालन हो, उसमें कोई हरकत नहीं न ? दादाश्री : 'हरकत नहीं', ऐसा नहीं। हम निश्चय करें कि आज्ञा का
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________________ मैं कौन हूँ? यह तो है भगवान की आज्ञा !!! दादाजी की आज्ञा का पालन करना यानी वह 'ए.एम.पटेल' की आज्ञा नहीं है। खुद 'दादा भगवान' की, जो चौदह लोक के नाथ हैं. उनकी आज्ञा है। उसकी गारन्टी देता हूँ। यह तो मेरे माध्यम से यह सब बातें निकली हैं। इसलिए आपको उस आज्ञा का पालन करना है। 'मेरी आज्ञा' नहीं है, यह दादा भगवान की आज्ञा है। मैं भी उस भगवान की आज्ञा में रहता हूँ न ! जय सच्चिदानंद