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मैं कौन हूँ?
मैं कौन हूँ?
ज्ञानविधि क्या है ? प्रश्नकर्ता : आपकी ज्ञानविधि क्या है ?
दादाश्री : ज्ञानविधि तो सेपरेशन (अलग) करना है, पुद्गल (अनात्मा) और आत्मा का! शुद्ध चेतन और पुद्गल दोनों का सेपरेशन।
प्रश्नकर्ता : यह सिद्धांततः तो ठीक ही है लेकिन उसकी पद्धति क्या है ?
दादाश्री : इसमें लेने-देने जैसा कुछ होता नहीं है, केवल यहाँ बैठकर यह जैसा है वैसा बोलने की जरूरत है ('मैं कौन हूँ' उसकी पहचान, ज्ञान कराना, दो घण्टे का ज्ञानप्रयोग होता है। उसमें अड़तालीस मिनिट आत्मा-अनात्मा का भेद करनेवाले भेदविज्ञान के वाक्य बुलवाये जाते हैं। जो सभी को बोलने होते हैं। उसके बाद एक घण्टे में पाँच आज्ञाएँ उदाहरण देकर विस्तारपूर्वक समझाई जाती है, कि अब बाकी का जीवन कैसे व्यतीत करना कि जिससे नये कर्म नहीं बंधे और पुराने कर्म पूर्णतया खत्म हो जायें, साथ ही 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का लक्ष्य हमेशा रहा करे!)
आवश्यकता गुरु की ? ज्ञानी की ? प्रश्नकर्ता : दादाजी मिलने से पहले किसी को गुरु माना हो तो? तो उनका क्या करें?
दादाश्री : उनके वहाँ जाना, और नहीं जाना हो तो, जाना आवश्यक भी नहीं है। हम जाना चाहें तो जायें और नहीं जाना हो तो नहीं जायें। उन्हें दुःख न हो, इसके लिये जाना चाहिए। हमें विनय रखना चाहिए। यहाँ पर 'आत्मज्ञान' लेते समय मुझसे कोई पूछे कि, 'अब मैं गुरु को छोड़ दूँ ?' तब मैं कहूँ कि, 'नहीं छोड़ना। अरे, उस गुरु के प्रताप से तो यहाँ तक पहुँच पाया है।' गुरु की वजह से मनुष्य कुछ मर्यादा में रह सकता है। गुरु नहीं हो तो मर्यादा भी नहीं होगी। और गुरु से कहना चाहिए कि 'मुझे ज्ञानी पुरुष मिले हैं। उनके दर्शन करने जाता हूँ।' कुछ
लोग तो अपने गुरु को भी मेरे पास ले आते हैं, क्योंकि गुरु को भी मोक्ष तो चाहिए न ! संसार का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं होता और मोक्ष का ज्ञान भी गुरु बिना नहीं होता। व्यवहार के गुरु 'व्यवहार' के लिए हैं और ज्ञानी पुरुष 'निश्चय' के लिए हैं। व्यवहार रिलेटिव है और निश्चय रीयल है। रिलेटिव के लिए गुरु चाहिए और रीयल के लिए ज्ञानी पुरुष चाहिए।
(७) मोक्ष का स्वरूप क्या ?
ध्येय केवल यही होना चाहिए ! प्रश्नकर्ता : मनुष्य का ध्येय क्या होना चाहिए ?
दादाश्री : मोक्ष में जाने का ही! यही ध्येय होना चाहिए। आपको भी मोक्ष में ही जाना है न? कहाँ तक भटकना? अनंत जन्मों से भटक भटक... भटकने में कुछ बाकी ही नहीं छोड़ा है न! तिर्यंच (जानवर) गति में, मनुष्यगति में, देवगति में, सभी जगह भटकता ही रहा है। किस लिए भटकना हुआ? क्योंकि 'मैं कौन हूँ' यही नहीं जाना। खुद का स्वरूप ही नहीं पहचाना। खुद का स्वरूप पहचानना चाहिए। खुद कौन है' इसकी पहचान नहीं करनी चाहिए? इतना घूमें फिर भी नहीं जाना आपने? केवल पैसे कमाने के पीछे पड़े हैं? मोक्ष के लिए भी थोड़ाबहुत करना चाहिए कि नहीं करना चाहिए ?
प्रश्रकर्ता : करना चाहिए।
दादाश्री : अर्थात स्वतंत्र होने की ज़रूरत है न? ऐसे परवश कब तक रहना ?
प्रश्नकर्ता : स्वतंत्र होने की ज़रूरत नहीं है मगर स्वतंत्र होने की समझ की ज़रूरत है, ऐसी मेरी मान्यता है।
___ दादाश्री : हाँ, उसी समझ की ही ज़रूरत है। उस समझ को हम जान लें तो बहुत हो गया, भले ही स्वतंत्र नहीं हो पायें। स्वतंत्र हो पायें कि नहीं हो पायें वह उसके बाद की बात है, लेकिन उस समझ की जरूरत तो है न? पहले समझ प्राप्त हो गई, तो बहुत हो गया।