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मैं कौन हूँ ?
जाती नहीं है। निरंतर जागृत रह सकते हैं। यानी निरंतर प्रतीति रहेगी ही । प्रतीति कब रहे ? जागृति हो तो प्रतीति रहे। पहले जागृति, फिर प्रतीति । फिर अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति ये तीनों रहेंगे। प्रतीति सदा के लिए रहेगी। लक्ष्य तो किसी किसी समय रहेगा। कुछ धंधे में या किसी काम में लगे कि फिर से लक्ष्य चूक जायें और काम खत्म होने पर फिर से लक्ष्य में आ जायें। और अनुभव तो कब हो, कि जब काम से, सबसे निवृत होकर एकांत में बैठे हों तब अनुभव का स्वाद आये । यद्यपि अनुभव तो बढ़ता ही रहता है, क्योंकि पहले चन्दूलाल क्या थे और आज चन्दूलाल क्या हैं, वह समझ में आता है। तो यह परिवर्तन कैसे ? आत्म-अनुभव से पहले देहाध्यास का अनुभव था और अब यह आत्म-अनुभव है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा का अनुभव हो जाने पर क्या होता है ?
दादाश्री : आत्मा का अनुभव हो गया, यानी देहाध्यास छूट गया । देहाध्यास छूट गया, यानी कर्म बंधना रुक गया। फिर और क्या चाहिए ? आत्मा - अनात्मा के बीच भेद - रेखा !
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यह अक्रम विज्ञान है, इसलिए इतनी जल्दी सम्यक्त्व होता है। वर्ना क्रमिक मार्ग में तो, आज सम्यक्त्व हो सके ऐसा है ही नहीं। यह अक्रम विज्ञान तो बहुत उच्च कोटि का विज्ञान है । इसलिए आत्मा और अनात्मा के बीच यानी आपकी और परायी चीज़ ऐसे दोनों का विभाजन कर देता है। 'यह' हिस्सा आपका और 'यह' आपका नहीं, और बीच में लाइन ऑफ डिमार्केशन, भेद-रेखा लगा दूँ वहाँ पर । फिर पड़ौसी के खेत की भिंडी हम नहीं खा सकते न ?
मार्ग 'क्रम' और 'अक्रम' !
तीर्थंकरों का जो ज्ञान है वह क्रमिक ज्ञान है। क्रमिक यानी सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना । ज्यों-ज्यों परिग्रह कम करते जायें, त्यों-त्यों मोक्ष के निकट पहुँचाये, वह भी लम्बे अरसे के बाद, और यह अक्रम विज्ञान
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मैं कौन हूँ ?
यानी क्या ? सीढ़ियाँ नहीं चढ़नी, लिफ्ट में बैठ जाना और बारहवीं मंजिल पर चढ़ जाना, ऐसा यह लिफ्ट मार्ग निकला है। जो इस लिफ्ट में बैठ गये, उनका कल्याण हो गया। मैं तो निमित्त हूँ । इस लिफ्ट में जो बैठ गये, उसका हल निकल आया न! हल तो निकालना ही होगा न ? हम मोक्ष में जानेवाले ही हैं, उस लिफ्ट में बैठे होने का प्रमाण तो होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए ? उसका प्रमाण यानी क्रोध-मानमाया-लोभ नहीं हो, आर्तध्यान - रौद्रध्यान नहीं हो। यानी पूरा काम हो गया न ?
जो 'मुझे' मिला वही पात्र !
प्रश्नकर्ता यह मार्ग इतना आसान है, तो फिर कोई अधिकार (पात्रता) जैसा देखना ही नहीं ? हर किसी के लिए यह संभव है ?
दादाश्री : लोग मुझे पूछते है किं, मैं अधिकारी (पात्र) हूँ क्या ? तब मैंने कहा, 'मुझे मिला, इसलिए तू अधिकारी ।' यह मिलना, वो सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स है इसके पीछे। इसलिए हमें जो कोई मिला, उसे अधिकारी समझा जाता है। जो नहीं मिला वह अधिकारी नहीं है। वह किस आधार पर मिलता है ? वह अधिकारी है, इसी आधार पर तो मुझसे मिलता है। मुझसे मिलने पर भी यदि उसे प्राप्ति नहीं होती, तो फिर उसका अंतराय कर्म बाधा रूप है।
क्रम में 'करने का' और अक्रम में...
एक भाई ने एक बार प्रश्न किया कि क्रम और अक्रम में फर्क क्या है ? तब मैंने बताया कि, क्रम माने जैसा कि सभी कहते हैं कि यह उलटा (गलत ) छोड़िए और सीधा (सही) कीजिए। सभी यही कहा करे बार-बार, उसका नाम क्रमिक मार्ग । क्रम माने सब छोड़ने को कहें, यह कपट- लोभ छोड़िए और अच्छा कीजिए। यही आपने देखा न आज तक ? और यह अक्रम माने, करना नहीं, करोमि करोसि करोति नहीं! जेब काटने पर अक्रम में कहेंगे, 'उसने काटी नहीं और मेरी कटी नहीं' और क्रम में तो ऐसा कहे कि, 'उसने काटी और मेरी कटी।'