Book Title: Mahavira ri Olkhan
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 169
________________ १५६ ज्ञान भर करम सू' इज मोक्ष प्राप्त हुवे । कडारण कम्मारण न मोक्ख श्रत्थि । उत्त० ४।३। बांध्योडा करमां रो फळ भाग्यां बिना मुगति नी मिलें । बन्धप्प मोक्खो तुज्भज्भ त्येव । आचा० ५|२| १५० वन्ध सू' मुक्त हवणो थांरे इज हाथ है। परीस हे जितस्स, सुलहा सुगइ तारिसगस्स । दश० ४ |२७| जो साधक परिसहां पर विजय पात्रै, उगरे वास्ते मोक्ष सुलभ है। १२. विनय विरए ठविज्ज प्रणां इच्छतो हियमप्पणो । उत्त० १६ प्रातमहिन करण श्राळी साधक आपने खुद नै विनय घरम में स्थिर राखे । सिया ह से पावय नो डहिज्जा, सीविसो वा कुविओो न भक्खे | सिया विसं हालहलं न मारे, न यावि मुक्खो गुरु हीलरखाए || दश० ६१७ संभव है कदाच आग नी जळावे, संभव है किरोधी नाग नीं उसे अर ओ भी सम्भव है के हलाहल विष मिनख ने नीं मारै। परण गुरु री अवहेलना करणिय साधक खातर मोक्ष सम्भव कोनी | रायखिए विषय पर जे । दश० ८१४० वडेरा रे सागै विनयपूर्ण वैवार करणो चांइजं । मूला खवप्पभवो दुमस्स, खोज पच्छा समुवैन्ति साहा ।

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