Book Title: Mahavira ri Olkhan
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta
Publisher: Anupam Prakashan

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Page 167
________________ १५७ aar मोक्खो भत्थेव । बंधन र मोक्ष आपण भीतर इज है । अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण वञ्प्रो । अप्पारणमेव अप्पास, जइत्ता सहमे हुए || उत्त० ६।३५। प्राचा० १||२| आपणी श्रातमा र सागैइज तूं जुद्ध कर, बाहरी दुसमना सू जुद्ध कररण में थनै काई लाभ ? श्रातमा नै प्रातमा सू ं इज जोत' र मिनख सांचो सुख पाय सकै । अप्पाकत्ता विकत्ताय, दुहारण य सुहारण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुपट्ठ सुप्पट्ठियो । उत्त० २० ३७१ आतमा इज सुख-दुख नै उत्पन्न करण आळी अर प्रातमा इज उपरो नास करण आळी है। सत् प्रवृत्ति में लाग्योड़ो प्रातमा श्रापणी मित्र र दुष्प्रवृति में लाग्योड़ी प्रतिमा आपरणी शत्रु है । जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे | एगं विणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो ॥ उत्त० ६|३४| जो मिनख दुर्जय सग्राम में दस लाख योद्धावां पर विजय प्राप्त करें, उणरी अपेक्षा जं आपने खुद नै जीत लंबे तो आ उपरी सबसू बड़ी जीत है । न तं अरी कंठ छेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा | उत्त० २०१४८ दुराचार में प्रवृत्त प्रातमा जितरो श्रापणो अनिष्ट करें, उतरो अनिष्ट तो एक गळो काटवा आळो दुसमन भी नी करें। पुरिसा ! अत्तारणमेव अभिगिज्झ, एवं दुक्खा प मुच्चसि । आचा० ३१३।१०

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