Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 286
________________ सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में कषाय विजय का मनोवैज्ञानिक महत्त्व शब्दों का प्रयोग किया गया है। यह सिद्धान्त है कि प्रत्येक वस्तु, उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य रूप को लिये के हुए हैं । (पेज. ४९) आचार्य कहते हैं कि "आयु के बंध से ही जीव जन्म लेता है और आयु उदय से ही जीवित रहता है । पूर्व आयु का विनाश और आगे की अन्य आयु का उदय होने पर मरण होता है । अथवा जो आयु संज्ञा वाले पुद्गल उदय में आ रहे हैं उनके गल जाने को मरण कहते हैं । " (पेज. ५०) आचार्यने जन्म और मरण दोनों को तरंग के रूप में लिया है जो आती-जाती रहती हैं । सल्लेखना के प्रकार : 267 आचार्य शिवाचार्य ने जिनागम में १७ प्रकार के मरण की चर्चा की है और उनकी विशेषताओं की भी प्रस्तुत किया है । १७ प्रकार के मरण का उल्लेख और उसके कारण और उसकी स्थिति की ग्रंथ में विशद चर्चा है । इन १७ मरण में से ५ मरण का वर्णन गाथा नं. २६ में किया गया है। जिनमें पंडितपंडित मरण, पंडित मरण, बाल पंडित मरण, बाल मरण और बाल-बाल मरण मुख्य हैं। आचार्य ने इनमें भी उत्तर मरणं के रूप में प्रायोपगमन, इंगीनी मरण और भक्त प्रत्याख्यान इन तीन मरणों को ही उत्तम माना है । आचार्यने सल्लेखना के अन्य दो प्रकारों का वर्णन किया है जिसमें प्रथम आंतरिक और दूसरा बाह्य है। आंतरिक सल्लेखना कषायों की होती है और बाह्य के अंतर्गत मात्र शरीर को ही क्षीण नहीं करना है परंतु अधिकाधिक आंतरिक कषायों को क्षीण करने पर जोर दिया गया है। आंतरिक कषायों की यह क्षीणता ही मृत्यु को आनंदमय बनाती है । पंचास्तिकाय में इसे ही समझाते हुए कहा : गया है कि “आत्म संस्कार के अननंतर उसके लिए ही क्रोधादि कषाय रहित अनंत ज्ञानादि गुणलक्षण परमात्म पदार्थ में स्थिर होकर रागादि विकल्पों को क्षीण करना अर्थात् भोजनादि का त्याग करके शरीर को क्षीण करना द्रव्य सल्लेखना है । ग्रंथों में शरीर को कमजोर या क्षीण करने के विशद वर्णन हैं । संक्षिप्त में कहें तो साधक सर्वप्रथम इस पुद्गल शरीर के प्रति ममता रहित होने लगता है । वह भूख पर संयम की लगाम लगाता है । पंच मरण : भगवती आराधना के आधार पर अति संक्षेप में हम पंच मरण की चर्चा करेंगे । आगम में कहा है, 'व्यवहार में, सम्यक्त्व में, ज्ञान में और चारित्र में पंडित के मरण को पंडित मरण कहते हैं। इस संदर्भ में चार प्रकार के पंडितों की चर्चा की गई है । उनके मध्य में जिसका पांडित्य, ज्ञान, दर्शन और चारित्र में अतिशय शाली है उसे पंडित पंडित कहते हैं । उसके पांडित्य के प्रकर्ष से रहित जिसका पांडित्य होता है उसे पंडित कहते है । पूर्व में व्याख्यात, बालपन और पांडित्य जिसमें होते हैं वह बाल पंडित है । उसका मरण बाल पंडित मरण है । और जिसके चारों प्रकार के पांडित्य में एक भी पांडित्य नहीं है वह बाल है और जो सबसे हीन है वह बाल-बाल मरण है । आचार्यने पंडित मरण के भेद करते हुए तीन प्रकार के मरणों को सर्वोत्तम माना है जो पादोपगमन, भक्त प्रतिज्ञा और इंगिनी मरण है । आचार्य कहते हैं कि "अथालंद विधि, भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी मरण, परिहार विशुद्धि चारित्र्य पादोपगमन मरण और जिन कल्पावस्था इनमें से कौन सी अवस्था का आश्रय . करके मैं रत्नत्रय में विहार करूँ ऐसा करके साधु को धारण करने योग्य अवस्था को धारण करके समाध मरण करना चाहिए ।"

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