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पंजाब में जैन धर्म का उद्भव,
प्रभाव और विकास
Introduction - Rise of Jainism ____ यमुना तट से खैबर, और काश्मीर से सिंध तक फैले पंजाब प्रदेश की भूमि को यह श्रेय प्राप्त है कि यहाँ पर पवित्र वेदों की रचना हुई, वैदिक काल से पूर्व की सिंधु घाटी सभ्यता - हडप्पा मोहनजोदडो (समय ईसा से ३००० वर्ष पूर्व) का विकास हुआ तथा इसी भूमि पर पेशावर (प्राचीन नाम पुण्ड्रवर्धन) में खगोल-गणितज्ञ व्याकरणाचार्य पाणिनी (समय ७०० वर्ष ईसा पूर्व) का जन्म हुआ । जहाँ ऋग्वेद में अर्हत ऋषभ, अजित व अरिष्टनेमि की स्तुतियाँ व उल्लेख मिलते हैं, वही सिंधु-घाटी सभ्यता की खुदाई से सिर पर जटाजूटवाली अर्हत् ऋषभ की खडे योग (कायोत्सर्ग) मुद्रा में नग्न, सिरपर पाँच फणावाली सातवें तीर्थंकर अर्हत सुपार्श्व और शिव (रुद्र)की पाषाण मूर्तियाँ तथा स्वस्तिक चिह्न की सीलें मिली हैं । पंजाब के वीतभय पत्तन (वर्तमान भेरा पत्तन, पाकिस्तान) तक भगवान महावीर के विहार का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है ।
ईसा की ७वीं शताब्दी में चीनी यात्री हुएनसांग पंजाब में जेहलम जिले के कटासराज (तब सिंहपुर-कटाक्ष) में आया और यहाँ पर देव मंदिर (श्वेतांबर जैन मंदिर) होने का उल्लेख किया ।
विज्ञप्ति-त्रिवेणी ग्रंथ में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में अत्यन्त प्राचीन भगवान ऋषभदेव व नेमिनाथ के मंदिरों के होने का उल्लेख मिलता है। विक्रम की १०वीं से १६वीं सदी तक मेवाड़, सिंध व राजस्थान से जैन मुनियों के साथ पैदल यात्री संघ कांगडा की यात्रा को आते रहे । कांगड़ा के पास ही बैजनाथ (पुराना नाम कीरग्राम) का विख्यात शिवमंदिर तो पूरा का पूरा ही जैन मंदिर के भग्नावशेषों पर खड़ा है। आचार्य
महेन्द्रकुमार मस्त