Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 291
________________ 272 शेखरचंद्र जैन भोगकर ऐसा जीव वहाँ से चय उत्तम मनुष्य भव में जन्म धारण कर संपूर्ण रिद्धियों को प्राप्त करते हैं। पीछे वे जिनधर्म अर्थात् मुनिधर्म व तप आदि का पालन करते हैं ।” रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है, "पिया है धर्मरूपी अमृत जिसने ऐसा सल्लेखनाधारी जीव समस्त प्रकार के दुःखों से रहित होता हुआ, अपार दुस्तर और उत्कृष्ट उदयवाले मोक्षरूपी सुन के समुद्र को पान करता है ।', पुरुषार्थ सिद्धि उपाय में भी कहा है, 'इस संन्यास मरण में हिंसा के हेतुभूत कषाय क्षीणता को प्राप्त होते हैं, इस कारण से संन्यास को भी श्री गुरु अहिंसा की सिद्धि के लिए कहते हैं ।' सल्लेखना का क्रम : सल्लेखना के क्रम के संदर्भ में भगवती आराधना में कहा गया है कि 'भक्त प्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष प्रमाण है । इन बारह वर्षों का कार्यक्रम निम्न प्रकार है । प्रथम चार वर्ष अनेक प्रकार के काय-क्लेशों द्वारा बितायें । आगे के चार वर्षों में दूध, दही, घी, गुड़ आदि रसों का त्याग करके शरीर को कृष करें । इस प्रकार आठ वर्ष व्यतीत होते हैं । दो वर्ष तक आचाम्ल व निर्विकृति भोजन . . ग्रहण करते रहना है । एक वर्ष केवल आचाम्ल भोजन ग्रहण करे । छह महीने तक मध्यम तपों द्वारा शरीर को क्षीण करता चले, और अंतिम छह महीने में उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीर को क्षीण करता रहे । वास्तव में देखा जाये तो सल्लेखना एक प्रेक्टीस है - देह को उत्तरोत्तर क्षमतापूर्वक क्षीण करते हुए उसके त्याग की । मात्र मरण करना ही हमारा बाह्य लक्ष नहीं होता है अपितु मरण पर समतापूर्वक विजय प्राप्त कर मरण के अंत करने का भाव होता है । अर्थात् हम उस सिद्धत्व को प्राप्त करना चाहते हैं जहाँ जन्ममरण, आवागमन छूट जाता है । बाहर शरीर कृष होता है, मलीन होता है लेकिन अंतर में एक प्रकाश - एक आभा फैलती है जो हमारे रोम-रोम को प्रकाशित करती है और हमारे तप का प्रभामंडल इस प्रकार का हो जाता है कि हम मात्र एक दिव्य प्रकाश का दर्शन करते हैं जिसमें हम सिर्फ अपने आत्मा के दर्शन करते हैं जो समस्त विकारों, विचारों से निर्भार है । सल्लेखना का धारक निरंतर प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय और बारह भावनाओं का स्मरण करता हुआ कर्मों की निर्जरा करता है । ऐसी भावनाओं का स्मरण ही इस तथ्य का सूचक है कि हमें कषायों से मुक्त होकर या उन पर विजय प्राप्त करके आत्मा को परमात्मा की ऊँचाईयों पर ले जाना है । ___ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमें इतना अवश्य कहना है कि हम श्रावक या जैन होने के नाते भले ही आज सल्लेखना धारण न कर सकें परंतु हमारी भावना नित्य प्रति यही होनी चाहिए कि एक श्रावक और जैन होने के नाते अपने भोजन पर संयम धारण करें । भक्ष्याभक्ष्य का ख्याल रखें । व्रतोपवास के द्वारा इन्द्रिय-संयम को धारण करते हुए आंतरिक संयम की ओर बढ़ने का प्रयत्न करें । हम परिमाण व्रत को धारण करते हुए सल्लेखना की भावना को भाते रहें ।

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