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सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में कषाय विजय
का मनोवैज्ञानिक महत्त्व
पूर्वभूमिका : ____ अपने विषय का प्रारंभ करने से पूर्व मैं सल्लेखना के विषय में उल्लेख करना चाहूँगा । ताकि विषय की स्पष्टता अच्छी तरह से हो सके।
सल्लेखना शब्द यह संथारा शब्द जैन धर्म का विशेष शब्द है । इसका अर्थगांभीर्य भी विशेष है । इसका अपर नाम समाधिमरण भी है। अर्थात् समता या धारण करते हुए मरण को वरण करना ।
सामान्य तौर पर संसार का प्रत्येक प्राणी सुख से जीना चाहता है। मृत्यु से मनुष्य ही नहीं, संपूर्ण प्राणी जगत भयभीत है । विचित्रता तो यह है कि हम जिस जीवन को जी रहे हैं वह सत्याभाष है और मृत्यु चिरंतन सत्य है । लेकिन हम सब आभास को ही सत्य मानकर चिरंतन के प्रति उपेक्षा भाव रखते हैं । सत्य को झुठलाने की कोशिष करते हैं । वास्तव में देखा जाये तो संसार के प्रति आसक्त और संसार से अनासक्त व्यक्ति में मूलभूत अंतर ही यह है कि एक संसार को असार मानकर मृत्यु के सत्य को समझकर उससे निर्भय होकर परमात्म पथ की यात्रा में आगे बढ़ता है जबकि दूसरा मृत्यु के भय से प्रतिदिन मरण की शरण जाता है ।
भारतीय मनीषा और संस्कृति में जन्म से मृत्यु तक के जिन सोलह संस्कारों की चर्चा की गई है उसमें मृत्यु को भी संस्कार माना है । जन्म के आनंद की तरह मृत्यु को भी आनंद स्वरूप ही माना है । यदि मृत्यु को वर्तमान जीवन का अंत माना जाय तो वह आगत जीवन का प्रथम चरण भी है।
कालांतर में मनुष्य के मन से निर्मोह का भाव कम होता गया और
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शेखरचंद्र जैन