Book Title: Mahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 285
________________ 266 शेखरचंद्र जैन कथित विद्वानों और पंडितों के एक वर्ग ने मृत्यु के जिस भयंकर और घृणास्पद स्वरूप को प्रस्तुत किया इससे मनुष्य भयभीत भी हुआ और मृत्यु की कल्पना भी भयावह हो गई। दूसरे शब्दों में कहें तो मृत्यु भय का पर्यायवाची बन गई । मनुष्य मृत्यु से इतना डरने लगा कि वह बलवान से मरने का भय खाने लगा और कभी-कभी दूसरों को भयभीत भी करने लगा । चोर, लुटेरे मृत्यु का भय बताकर अनिष्ट करने लगे जिससे मृत्यु से संघर्ष करनेवाले भी भयभीत होने लगे । इस मृत्यु के भय से बचाने के लिए कुछ ठेकेदार पंडितों ने उपाय बतलाने प्रारंभ किये और धन लूटने लगे । मृत्यु से बचने के लिए जप, दान का लालच देने लगे । उन्होंने इसे आजीविका का साधन बना लिया । सच तो यह है कि इस मरणधर्मा पुद्गल 'शरीर के मोह में व्यक्ति भयभीत भी हुआ और सत्य से दूर भी चला गया। जो लोग इस मायाजाल में नहीं फँसे या जिन्होंने मृत्यु की परवाह नहीं की उन्होंने इसे जीवन का स्वाभाविक पटाक्षेप माना और निर्भय हो गये । उन्हें कोई पंडित या पंडा भयभीत नहीं कर सका । मृत्यु भी उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ी रही । संसार के महान अन्वेषण और उपलब्धियाँ या आत्मा की परम सिद्धि प्राप्त कर सके जो मृत्यु से नहीं डरे । उनके शरीर भले ही मर गये परंतु वे अमर हो गये । हमारे तीर्थंकरों ने या भगवान बुद्ध ने सिर्फ इसलिए घर छोड़ा कि उनके अंतर में निर्भीकता थी और मृत्यु प्रति उपेक्षा के भाव थे । के - जब हम प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करते हैं तो प्रायः सभी धर्मों में स्वैच्छिक मृत्यु चरण के उल्लेख प्राप्त होते हैं । यह स्वैच्छिक मृत्यु वरण ही मृत्यु पर विजय है यही मृत्यु महोत्सव है। यहाँ इतना । ध्यान रखना है कि आत्महत्या कभी सल्लेखना नहीं हो सकती । सत्य तो यह है कि स्वेच्छा से मृत्यु का चरण करने वाला उसे मनकी प्रसन्नता से स्वीकार करता है जबकि आत्महत्या में न तो प्रसन्नता होती है, उल्टे उसमें क्रोध, भय या मानसिक विकृति ही कारणभूत होती है । सल्लेखना की शास्त्रीय व्याख्या जैन ग्रंथों में सल्लेखना की वैज्ञानिक और विशद व्याख्याएँ दी गई हैं । उसका बाहरी स्वरूप या लक्षण बताते हुए सर्वार्थ सिद्धि एवं भगवती आराधना में कहा गया है कि 'अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है। अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करनेवाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है । इसी प्रकार दुर्भिक्ष आदि के उपस्थित होने पर धर्म के अर्थ शरीर का त्याग करना सल्लेखना है । आ. श्री शिवाचार्य ने 'भगवती आराधना' में सल्लेखना का बड़ा ही शास्त्रीय विवेचन किया है। भगवती आराधना की अपराजित विजयोदया टीका में सल्लेखना की व्याख्या, प्रकार, विधि आदि का बड़ा ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है । वे लिखते हैं, 'आत्मा के इन्द्रिय आदि प्राणों के चले जाने को मरण कहते हैं ।' कहा भी है - मृङ : धातु प्राण त्याग के अर्थ में है । त्याग वियोग को कहते हैं, आत्मा से प्राणों का पृथक होना वियोग है। यह आयुकर्म संबंधी पुद्गलों के पूर्ण रूप से कम होने पर होता है... वीर्यान्तराय कर्म के उदय से मनोबल, वचनबल और कायबल रूप प्राणों की हानि होती है । (पृ. ४३) आगे कहा गया है कि मरण जीवनपूर्वक होता है जिसके लिए मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम

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