Book Title: Lati Samhita
Author(s): Manikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti
Publisher: Manikchandra Digambar Jain Granthmala Samiti

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Page 7
________________ नामका एक प्रकरण प्रायः ७७० श्लोकोंमें समाप्त किया गया है, उसे यदि एक अध्याय माना जाय तो यह ग्रन्थ डेढ़ अध्यायके करीब है और यदि अध्यायका एक अंश (प्रकरण ) माना जाय तो इसे एक अध्यायसे. भी कम समझना चाहिये । बहुत करके वह प्रकरण अध्यायका एक अंश ही जान पड़ता है, दूसरा-द्रव्यनिशेषनिरूपण नामका-अंश उसके आगे प्रारम्भ किया गया है जो, ११४५ श्लोकोंके करीब होनेपर भी अधूरा है । परन्तु वह आय प्रकरण एक अंश हो या पूरा अध्याय होकुछ भी सही-इसमें सन्देह नहीं कि प्रकृत ग्रन्थ अधूरा है-उसमें पांच अध्याय नहीं है और इसका कारण ग्रन्थकारका उसे पूरा न कर सकना ही जान पड़ता है । मालूम होता है ग्रन्थकार महोदय इसे लिखते हुए अकालमें ही कालके गालमें चले गये हैं और इसीसे यह ग्रंथ अपनी वर्तमान स्थितिमें पाया जाता है-उसपर ग्रन्थकारका नाम तक भी उपलब्ध नहीं होता । अस्तु; जबसे यह ग्रन्थ प्रकट हुआ है तबसे जनता इस बातके जाननेके लिये बराबर उत्कंठित है कि यह ग्रन्थ कौनसे आचार्य अथवा विद्वानका बनाया हुआ है और कब बना है । परन्तु विद्वान् लोग अभीतक इस विषयका कोई ठीक निर्णय नहीं कर सके और इसलिये जनता बराबर अँधेरेमें ही चली जाती है । ग्रन्थकी प्रौढता, युक्तिवादिता और विषय-प्रतिपादन-कुशलताको देखते हुए, कुछ विद्वानों-. का इस विषयमें ऐसा खयाल रहा है कि यह ग्रन्थ शायद पुरुषार्थसिद्ध्युपायादि ग्रन्थोंके कर्ता श्रीअमृतचन्द्राचार्यका बनाया हुआ हो । . पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने तो इसपर अपना पूरा विश्वास ही प्रकट कर दिया और पंचाध्यायी-भाषाटीका-की अपनी भूमिकामें लिख दिया कि “ पंचाध्यायीके कर्ता अनेकान्तप्रधानी आचार्यवर्य अमृतचन्द्र सूरि ही हैं।” परन्तु वास्तवमें बात ऐसी नहीं है, और न अमृतचन्द्राचार्यको इस ग्रन्थका कर्ता माननेके लिये कोई युक्तियुक्त अथवा समर्थ कारण ही प्रतीत होता है । यह ग्रन्थ अमृतचन्द्राचार्यसे बहुत पीछेका-शताब्दियों बादका बना हुआ है और इसके कर्ता, खोज करनेपर, 'कवि राजमल्छ।

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