Book Title: Labdhinidhan Gautamswami
Author(s): Harshbodhivijay
Publisher: Andheri Jain Sangh
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ओवा. ४२
रममाण जे निजरुपमा सर्वजगनुं हित करे, जे नाथ औदारिक वली तैजस तथा कार्मण तनु ओ सर्वने छोडी अहिं पाम्या परमपद शाश्वतुं ने रागद्वेष जले भर्या संसार सागर जे तर्या,
ओवा. ४३
शैलेशी करणे भाग त्रीजे शरीरना ओछा करी प्रदेश जीवना धन करी वली पुर्व ध्यान प्रयोगथी धनुष्यथी छूटेल बाण तणी परे शिवगति लही,
अवा. ४४
ओवा. ४५
निर्विघ्न स्थिरने अचल, अक्षय सिद्धिगति ओ नामनु छे स्थान अव्याबाध ज्यांथी नही पुनः फरवापर्यु ओ स्थानने पाम्या अनंता ने वली जे पामशे, आस्त्रोत्रने प्राकृतगिरामां वर्णव्युं भक्तिबले अज्ञात ने प्राचीन महामना को मुनीश्वर बहुश्रुते पदपद महीं जेना महासामर्थ्यनो महिमा मले, जे नमस्कार स्वाध्यायमा प्रेक्षी हृदय गद्गद् बन्यु श्रीचंद्र नाच्यो ग्रंथ लेई महाभाव- शरण मल्युं
ओवा. ४६
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