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काल में राजस्थान की छोटी-छोटी चटशालाओं के पंडितों को याद था और वे छात्रों को कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों को पढ़ाया करते थे ।
कातंत्र व्याकरण दो भागों में विभक्त है। पूर्वार्द्ध में ५७४ सूत्र हैं तथा उत्तरार्द्ध में ८०९ सूत्र है । व्याकरण का सन्धि, लिंग, कारक, समास एवं तद्धित भाग पूर्वार्द्ध में आता है तथा तिङन्त एवं कृदन्त भाग व्याकरण का उत्तरार्द्ध भाग है। कातन्त्ररूपमाला यह नाम भावसेन द्वारा दिया हुआ है । भावसेन ने ही इस व्याकरण के सूत्रों पर टीका लिखी है। वैसे इसका मूल नाम कलाप अथवा कौमार व्याकरण है'
लिखी है
२.
मन्दबुद्धिमबोधार्थ
भावसेनमुनीश्वरः । कातन्त्ररूपमालाख्यां वृत्तिं व्यररचत्सुधीः ॥ २ ॥
राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में कातन्त्ररूपमाला की कितनी ही पाण्डुलिपियाँ मिलती हैं जो इस व्याकरण के पठन-पाठन में काम आने की द्योतक हैं। इन पाण्डुलिपियों में भावसेन के अतिरिक्त दौसिंह की वृत्ति भी मिलती है। जयपुर के भण्डार में एक पाण्डुलिपि कातन्त्र विभ्रमानचूरि के नाम से भी उपलब्ध होती है जिसका लेखन काल संवत् १६६९ कार्तिक सुदी ५ हैं। राजस्थान के जैन ग्रन्थागारों में अब तक उपलब्ध कातन्त्र व्याकरण से सम्बन्धित कुछ प्रमुख पाण्डुलिपियों का परिचय निम्न प्रकार से है
१.
३.
४.
भावसेन त्रिविद्येन वादिपर्वतवज्रिणा ।
कृतायां रूपमालायां कृदन्तः पर्यपूर्यतः ।। १ ।।
भावसेन ने यह भी लिखा है कि उसने मन्दबुद्धि वाले पाठकों के लिए इस व्याकरण पर टीका
५.
६.
I
आमेर शास्त्र भण्डार में जो वर्तमान में जैन विद्या संस्थान के नाम से जाना जाता है इसकी तीन पाण्डुलिपियाँ संगृहीत हैं लेकिन ये तीनों ही सूत्र मात्र हैं।
जयपुर के श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर तेरह पंथियान के शास्त्र भण्डार में दुर्गसिंह की टीका वाली प्रति है जिसकी पत्र संख्या ५२१ हैं ।
कातन्त्र रूपमाला टीका- दौर्ग्यसिंह - पत्र संख्या ३६४ । ले० काल संवत् १९३७ । बाबा दुलीचंद शास्त्र भंडार, जयपुर |
कातन्त्ररूपमाला वृत्ति
| पत्र संख्या १४ से ८९ । लेखन काल संवत् १५२४ कार्तिक सुदी ५ | लिपि स्थान - टोकनगर (राजस्थान), प्राप्ति स्थान जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीरजी ।
जयपुर के छोटे दीवान जी के मंदिर के शास्त्र भण्डार में इसकी दो पाण्डुलिपियों हैं जिनमें ७७ एवं ३५ पत्र हैं। दोनों ही अपूर्ण प्रतियाँ हैं ।
डूंगरपुर (राजस्थान) के शास्त्र भंडार में दौर्ग्यसिंह की टीकी वाली पाण्डुलिपि संगृहीत है जिसकी पत्र संख्या ७३ है ।
१. तेन ब्राह्म्यै कुमायें च कथितं पाठहेतवे ।
कालापकं तत्कौमारं नाम्ना शब्दानुशासनम् ॥ २ ॥
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