Book Title: Katantra Roopmala
Author(s): Sharvavarma Acharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 4
________________ सूत्रकर्ता शर्ववर्माचार्य कब और किप्स परम्परा में हुए इसका मुझे परिज्ञान नहीं है । कातंत्ररूपमाला के कर्ता आचार्य भावसेन हैं जो दक्षिण प्रांतीय थे । जैन आचार्यों में शब्दागम-व्याकरण तर्कागमन्याय शास्त्र और परमागम-सिद्धान्त, इन तीन विद्याओं में निपुण आचार्य को वैविध उपाधि से अलंकृत किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि आचार्य भावसेन इन तीनों विद्याओं के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इस ग्रन्थ के अन्त में दी हुई प्रशस्ति से स्पष्ट है कि आचार्य भावसेन मूलसंघ सेनगण के आचार्य थे । सेनगण की पट्टावली में भी इनका उल्लेख मिलता है। “परम शब्द ब्रह्म स्वरूप त्रिविद्याधिप-परवादि पर्वत वन दण्ड श्री भावसेन भट्टारकाणाम् “वादिगिरिवज्जदण्ड" वादिपर्वतवज्र और वादि गिरिसुरेश्वर आदि विशेषणों से स्पष्ट है कि यह शास्वार्थी विद्वान् थे। तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा के लेखक स्व० डा० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य आरा ने तृतीय भाग में ऊहापोह कर इनका समय तेरहवीं शताब्दी का मध्य भाग निर्धारित किया है। इनके द्वारा लिखित निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हैं। (१) प्रमाण प्रमेय (२) कथाविचार (३) शाकटायन व्याकरण टोका (४) कातन्त्ररूपमाला (५) न्याय सूर्यावलि (६) भुक्ति मुक्ति विचार (७) सिद्धान्त सार (८) न्याय दीपिका (९) सप्त पदार्थी टीका और (१०) विश्व तत्त्व प्रकाश। इन ग्रन्थों का विवरण तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा तृतीय भाग पृष्ठ २५६ से २६४ पर द्रष्टव्य है । डा० नेमिचन्द्रजी द्वारा लिखित यह ४ भागों में विभक्त महान प्रकाखिल भार्गव दिगम्बर जैः विद्वत् परिषद् के द्वारा भगवान् महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हैं तथा तत्कालीन साहित्य में श्रेष्ठतम माना गया है। कातन्त्र-रूपमाला की यह हिन्दी टीका गणिनी, आर्यिकाशिरोमणि श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के द्वारा निर्मित है। ज्ञानमती माताजी सम्प्रति बहुश्रुत विदुषी हैं। न्याय, सिद्धान्त आधार तथा व्याकरणादि सभी विषयों में इनका अच्छा प्रवेश है। हिन्दी और संस्कृत की सुन्दर एवं निदोष कविता करती हैं। आधनिक शैली से अपने प्रथमानयोग की अनेक कथाओं को रूपान्तरित किया है। इनका विशिष्ट परिचय किसी ग्रन्थ में अन्यत्र दिया गया हैं कातंत्र-रूपमाला की इस हिन्दी टीका पाटिलपि का मैंने आद्यन्त अवलोकन किया। इस हिन्दी टीका के माध्यम से कातन्यरूपमाला के अध्ययन अध्यापन में विशेष सुविधा होगी ऐसी आशा है। अ० भा० वर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषद, शास्त्री परिषद एवं अन्य बौद्धिक संगठन यदि प्रयास करे तो इसका सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी एवं रोवा विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में लघुसिद्धान्तकौमुदी के विकल्प में निर्धारण हो सकता है और जब इसके प्रचार में चहुंमुखी प्रगति होगी। अन्त में माताजी के वैदुष्य के प्रति समादर प्रकट करता हुआ उनके दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ । समयाभाव के कारण पाणिनीय व्याकरण और कानावरूपमाला के विशिष्ट स्थलों का विश्लेषण नहीं कर सका इसका खेद है। डा० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर

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