Book Title: Kamal Battisi
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 4
________________ सम्पादकीय भारतीय वसुन्धरा संतभूमि है, यहाँ समय-समय पर ज्ञानी, योगी संत महापुरुषों का अवतरण होता रहा है। वर्तमान चौबीसी में हुए प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव से भगवान महावीर स्वामी पर्यन्त चौबीस तीर्थकर, अतीत की चौबीसी, भविष्य में होने वाली चौबीसी तथा समय-समय पर हुए ज्ञानी आचार्य, सद्गुरू संत पुरूष इस बात के प्रमाण हैं । संत ही संसार के जीवों को सत्य का स्वरूप, सन्मार्ग, सत्य धर्म का मार्ग, आत्म कल्याण का उपाय बताते हैं। कहा भी है - आग लगी आकाश में,मर-मर गिरे अंगार। संत न होते जगत में, जल जाता संसार ॥ संतों की महिमा अपूर्व है, संत ही धर्म और संस्कृति के आधार हैं। मात्र जैन परम्परा में ही नहीं, अपितु संसार के अनेक सम्प्रदायों में आध्यात्मिक चेतनाओं के रूप में संतों ने जन्म लिया और जगत के जन-मानस को अध्यात्म और धर्म का स्वरूप बताया । सोलहवीं शताब्दी में श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज जिन परम्परा में हुए शुद्धात्मवादी आध्यात्मिक क्रान्तिकारी वीतरागी संत थे। वि. सं. १५०५ में मिति अगहन सुदी सप्तमी को पुष्पावती नगरी में उनका जन्म हुआ था। पूज्य पिता श्री गढ़ाशाह जी, माता वीर श्री देवी के आनन्द का पार नहीं था। अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा, प्रज्ञा के धनी थे-गुरू तारण तरण। ग्यारह वर्ष की बाल्यावस्था में सम्यक्दर्शन, इक्कीस वर्ष की किशोर अवस्था में बाल ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा, तीस वर्ष की युवावस्था में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करना और साठ वर्ष की आयु में निर्ग्रन्थ, दिगम्बर साधु होना, यह सब उनका जीवन यह सिद्ध कर रहा है कि वे संसार से विरक्त, विरागी, वीतरागी, निस्पृह, आकिंचन्य मोक्षमार्गी संत थे। संसार और संसार के प्रपंच में पड़ना तो दूर, इसकी तरफ वे देखना भी नहीं चाहते थे, इसी कारण उनका ज्ञान, ध्यान, साधना और वीतरागता दिनों-दिन वृद्धिगत होती गई। साधु पद धारण करने के पश्चात् श्री गुरू १५१ मण्डलों के आचार्य होने से "मण्डलाचार्य" पद से अलंकृत हुए। उनके श्री संघ में ७ निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिराज (साधु) और ३६ आर्यिकायें अपनी आत्म साधना में रत थीं, जिनके नाम इस प्रकार हैं। तारण तरण श्री संघ के ७ साधु१.श्री हेमनन्दि जी महाराज २. श्री चंद्रगुप्त जी महाराज ३. श्री समंतभद्र जी महाराज ४. श्री चित्रगुप्त जी महाराज ५. श्री समाधि गुप्त जी महाराज ६. श्री जयकीर्ति जी महाराज ७.श्री भुवनन्द जी महाराज ३६ आर्यिका माताजी के नाम - १. कमल श्री २.चरन श्री ३. करन श्री ४.हंस श्री ५. सुवन श्री ६. औकास श्री ७. दिप्ति श्री ८.स्वयं दिप्ति श्री ९. अभय श्री १०. स्वर्क श्री ११. सर्वार्थ श्री १२. विक्त श्री १३. आनन्द श्री १४. समय श्री १५. हिय उत्पन्न श्री १६. हिय रमन श्री १७. अलष श्री १८. अगम श्री १९. सहयार श्री २०. उवन श्री २१. रमन श्री २२. उत्पन्न श्री २३. विपन श्री २४. ममल श्री २५.विन्द श्री २६. समय श्री २७. सुन्न सुनन्द श्री २८. हिययार श्री २९.जान श्री ३०.श्रेणि श्री ३१. जैन श्री ३२. लवन श्री ३३.लीन श्री ३४. भद्र श्री ३५. उवन श्री ३६. पय उवन श्री इस प्रकार श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज के श्री संघ में ७ साधु, ३६ आर्यिका माताजी के साथ-साथ २३१ ब्रह्मचारिणी (सुवनी) बहिनें तथा ६० ब्रह्मचारी व्रती श्रावक एवं १८ क्रियाओं का पालन करने वाले सद्ग्रहस्थ श्रावक लाखों की संख्या में थे। उनके शिष्यों की कुल संख्या ४३४५३३१थी। यह संपूर्ण विवरण श्री नाममाला ग्रंथ में उपलब्ध है। इससे यह प्रमाणित हो गया है कि आचार्य श्री जिन तारण स्वामी सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र के साधक थे। उनके संघ के सभी जीव सत्श्रद्धान, ज्ञानपूर्वक चारित्राराधना में रत रहते थे। श्री गुरुदेव तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने अपनी आत्म साधना के तहत चौदह ग्रंथों की रचना की, जिनमें विचार मत के अन्तर्गत - सम्यकदर्शन का प्रतिपादक-श्री मालारोहण जी ग्रंथ, सम्यकज्ञान का प्रतिपादक- श्री पंडित पूजा जी ग्रंथ और सम्यक्चारित्र का प्रतिपादक यह श्री कमल बत्तीसी जी ग्रंथ है। सम्यक्दर्शन जहाँ धर्म का मूल है, मोक्षमहल की प्रथम सीढी है वहीं सम्यक्चारित्र मोक्ष महल का द्वार है । सम्यक्चारित्र के बिना कोई भी जीव मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । तीर्थंकर भगवान, जिनकी मुक्ति होना निश्चित रहता है, उन्हें भी चारित्र धारण करने पर ही मोक्ष प्राप्ति होती है। इस कमल बत्तीसी जी ग्रंथ में सम्यक्चारित्र का सांगोपांग विवेचन किया गया है। श्री गुरू तारण स्वामी जी महाराज की गाथाओं के रहस्यपूर्ण हार्द को पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज ने अपनी साधना की अनुभूतियों सहित निश्चय-व्यवहार से समन्वित सम्यक्चारित्र के आधारभूत सिद्धान्त और साधना को स्पष्ट कर स्वयं का मार्ग तो बनाया ही है, साथ-साथ हम सभी जिज्ञासु आत्मार्थी भव्यात्माओं को धर्म के सत्स्वरूप का बोध कराकर महान

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