Book Title: Kailashsagarsuriji Jivan yatra
Author(s): Mitranandsagar
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनिश्री ने धीरे से कहा 'मैं तो अब वृद्ध हो चुका हूँ। एक-दो वर्ष मुश्किल से जी सकूगा । मूर्तिपूजा विरोधी मान्यता का प्रतिकार करना अब मेरे लिए संभव नहीं है । ऐसा करने से हमारे समाज में मेरे प्रति द्वेष उत्पन्न होगा। मेरी आत्मिक शांति नष्ट हो जाएगी । इस ढलते जीवन में अब वेकार अशांति उत्पन्न कर मैं क्या करूं ? मैं चाहता हूँ कि मेरे ये अंतिम दिन शांति से गुजरें, इसीलिए मैं अपने इसी समाज की मान्यताओं के अनुसार जीवन पूर्ण कर रहा हूँ ।' सत्यं शरणं गच्छामि मुनिश्री की बात सुनकर काशीराम दंग रह गए । उसी दिन उन्हें अपनी अज्ञान मान्यता का आभास हुआ। वे मन ही मन स्वयं को धिक्कार रहे थे । क्यों कि उन्होंने अपनी अज्ञानावस्था में मूर्ति को पत्थर कहकर जिनेश्वर परमात्मा की घोर आशातना की थी। उन्हें लगा कि वास्तव में मैं आज तक मूर्ख बना रहा, आज इस पुस्तक ने मुझ सत्य के दर्शन कराए हैं । उन्होंने उसी वक्त प्रतिज्ञा ली कि आज से वे कभी मूर्तिपूजा का विरोध नहीं करेंगे । सत्य के चाहक को सम्प्रदाय के बंधन कभी अवरोध रूप नहीं बन सकते और सत्य के उपासक इस प्रकार के बंधनों को गिनते भी नहीं हैं। प्रारम्भ से ही दांभिक जीवन के प्रति काशीराम को नफरत र्थी । उन्हें दम्भ और कपट तनिक भी पसन्द नहीं था । उन्होंने मूर्ति www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only

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