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जिनके कर्म-मल लगा हुआ होता है, वे जीव संसारी कहलाते हैं । संसारी जीव विविध प्रकार के कर्म-पुद्गलों से जकड़े हुए होते हैं, इसलिए उनकी स्थिति एक सी नहीं होती। कोई जीव एक इन्द्रियवाला होता है तो कोई पांच इन्द्रियवाला, कोई त्रस, कोई स्थावर, कोई समनस्क, (मनसहित) कोई अमनस्क ( मन रहित ) । इस प्रकार संसारी जीवों की अनगिनत श्रेणियां की जा सकती हैं।
जीव- अजीव
हम जानते हैं, आत्मा अमर है। अमुक मर गया है, अमुक जन्मा है - यह भी जानते हैं। अमर पदार्थ की मृत्यु नहीं होती और मृत्यु हुए बिना कोई पैदा नहीं होता, तो फिर अमर आत्मा का मरण एवं जन्म कैसे होता है ?
जन्म और मरण से आत्मा का अस्तित्व नहीं मिटता। ये तो आत्मा की अवस्थाएं हैं - आत्मा को एक जन्म- स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति में पहुंचाने वाले हैं। संसारी जीवों की मुख्य भवस्थितियां (जन्म -स्थितिया) चार हैं। उन्हें चार गति कहते हैं-- १. नरक -गति, २ तिर्यञ्च-गति, ३. मनुष्य - गति, ४. देव - गति ।
गति शब्द का अर्थ है--चलना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । परन्तु यहां पर गति शब्द का व्यवहार एक जन्म-स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति को या एक अवस्था से दूसरी अवस्था को पाने के अर्थ में हुआ है। जैसे मनुष्य-अवस्था में जीव मनुष्य-गति कहलाता है और वही जीव तिर्यञ्च-अवस्था को प्राप्त हो गया तो हम उसे तिर्यञ्च गति कहेंगे ।
हमारे इस मनुष्य-लोक के नीचे सात पृथ्वियां हैं, जो नरक कहलाती है। उनमें उत्पन्न होने वाले जीवों को नरक -गति कहते हैं । देव - अवस्था को देव-गति एवं मनुष्य-अवस्था को मनुष्य गति कहते हैं। एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर दो, तीन, चार, पांच--इस प्रकार सभी इन्द्रियवाले जीव जिसमें जन्म धारण करते हैं, वह तिर्यञ्च - गति है । मनुष्य और तिर्यञ्च-गति हमारी आंखों के सामने हैं। नरक और देव यद्यपि हमारे प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भी हम उनके अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकते। आत्मा एवं पुण्य-पाप हैं, तब फिर नरक एवं स्वर्ग क्यों नहीं माने जा सकते ? संसार के सब जीव अपने गतिनाम कर्म के उदय से इनमें परिभ्रमण करते रहते हैं ।
१. नरक -गति - नरक सात हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, महातम प्रभा । ये सात पृथ्वियां नीचे लोक में हैं। इनमें जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे नारक कहलाते हैं। यह नरकगति है ।
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