Book Title: Jiva Ajiva
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ पहला बोल गति चार १. नरक गति ३. मनुष्य गति २. तिर्यञ्च गति ४. देव गति जैन दर्शन में जीव दो प्रकार के माने गए हैं--सिद्ध और संसारी। प्रत्येक वस्तु में भिन्नत्व है। वह उसकी असमानता के कारण ही पाया जाता है। असमानता विजातीय वस्तुओं में मिले, उसमें तो आश्चर्य ही क्या ? किन्तु सजातीय वस्तुओं में भी उपलब्ध होती है और इसी के आधार पर एकजातीय वस्तुओं के भी पृथक्-पृथक् वर्गीकरण किए जाते हैं। जीव का लक्षण चेतना--उपयोग है। वह जीव मात्र में मिलता है। सामान्य चैतन्य की दृष्टि से सब जीव समान हैं, एक-जातीय हैं, पर आत्म-शुद्धि सब में एक समान नहीं मिलती। इसलिए जीवों के दो वर्ग किए गए हैं--सिद्ध जीव और संसारी जीव । जो आत्माएं कर्म-रज को धो-मांजकर पूर्णरूपेण उज्ज्वल बन जाती हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं। ऐसी आत्माएं अनन्त हैं। वे सिद्ध आत्माएं लोक के उपरितन प्रान्त-भाग में रहती हैं। उनके जन्म, जरा, शोक, भय आदि कुछ भी नहीं होते। प्रत्येक सिद्ध का आत्म-विकास समान होता है। सिद्धों के पन्द्रह भेद चरम-संसारी अवस्था की अपेक्षा से किए जाते हैं; जैसे--गृहस्थ के वेश में मुक्ति पानेवाले गृहलिंगसिद्ध, जैन-मुनि के वेश में मुक्ति पानेवाले स्वलिंगसिद्ध और अन्य साधुओं के वेश में मुक्ति पाने वाले अन्यलिंगसिद्ध कहलाते हैं। ऐसे ही स्त्री-जन्म में, पुरुष-जन्म में एवं कृत्रिम नपुंसक-जन्म में मुक्त होनेवाले क्रमशः स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध एवं नपुंसक लिंगसिद्ध कहलाते हैं। सिद्ध होने के पश्चात् उनका संसार-चक्र सदा के लिए मिट जाता है। दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः।। जलाकर खाक किए हुए बीज में अंकुर पैदा नहीं होता, वैसे ही कर्म-बीज दग्ध हो जाने पर आत्मा में भवांकुर (जन्म-मृत्यु परम्परा) पैदा नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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