Book Title: Jinvallabhsuri Granthavali
Author(s): Vinaysagar, 
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 381
________________ ३१० जुगपवरागमपीडसपाणपीणियमणा कया भव्वा । जेण जिणवल्लहेणं गुरुणा तं सव्वहा वंदे ॥ १९॥ - सुगुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र गा० १५ - १९ नमिवि जिणेसरधम्मह तिहुयणसामियह, पायकमलु समिनिम्मलु सिवगयगामियह। करिमि जहट्ठियगुणथुइ सिरि जिणवल्लहह, जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह ॥ १॥ जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसण तण, परपरिवाइगइंदवियारणपंचमुहु, जाइ जिव नियनामुन तिण जिव कुवि घणइ । परिशिष्ट तसु गुणवन्नणु करण कु सक्कइ इक्कमुहु ? ॥ २ ॥ जो वायर वियाणइ सुहलक्खणनिलउ, " सद्दु असद्दु वियाणइ सुवियक्खणतिलउ । सुच्छंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ, गुरु लहु लहि पइठावर नरहिउ विजयमउ ॥ ३॥ कव्वु अउव्वु जु विरयइ नवरसभरसहिउ, लद्धपसिद्धिहिं सुकइहिं सायरु जो महिउ । सुकइ माहुति पसंसहिं जे तसु सुहगुरुहु, साहु न मुणहि अयाणुय मइजियसुरगुरुहु ॥ ४ ॥ कालिया कइ आसि जु लोइहिं वन्नियइ, ताव जाव जिणवल्लह कइ नाअन्नियइ | अप्पु चित्तु परियाणहि तं पि विसुद्धनय, ते वि चित्तकइराय भणिज्जहि मुद्धनय ॥ ५॥ सुकइविसेसियवयणु जु वप्पइराउकइ, सुविजिणवल्लहपुरउ न पावइ कित्ति कइ । अवरि अणेयविणेयहिं सुकइ पसंसियहिं, तक्कव्वामयलुद्धिहिं निच्चु नमंसियहिं ॥ ६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only - ४ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398