Book Title: Jinvallabhsuri Granthavali
Author(s): Vinaysagar, 
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 383
________________ ३१२ अभयदेउमुणिनाहु नवंगह वित्तिकरु, तसु पयपंकय-भसलु सलक्खणुचरणकरु ॥ ४४॥ सिरिजिणवल्लहु दुलहु निप्पुन्नहं जणहं, हउं न अंतु परियाणउं अहु जण तग्गुणहं । सुद्धधम्म हउं ठाविउ जुगपवरागमिण, एउ वि मई परियाणिउ तग्गुणसंकमिण ॥ ४५ ॥ भमिउ भूरिभवसायरि तह वि न पत्तु मई, सुगुरुरयणु जिणवल्लहु दुल्लहु सुद्धमइ । पाविय तेण न निव्वुइ इह पारत्तियइ, परिभव पत्त बहुत्त न हुय पारतियइ ॥ ४६॥ इय जुगपवरह सूरिहि सिरिजिणवल्लहह, नायसमयपरमत्थह बहुजणदुल्लहह । तसु गुणथुइ बहुमाणिण सिरिजिणदत्तगुरु, करइ सुनिरुवमु पावइ पउ जिणदत्तगुरु ॥ ४७ ॥ - चर्चरी पद्य १-८; ४०-४७, सिरिजिणवल्लहसूरीहिं विरइयं जमिह तं वंदे ॥ २२ ॥ कलिकालकुमुइणीवणसंकोयणकारि सूरकिरणव्व । इह सुत्तासुत्तपया व भासणुल्लासिणो जेसिं ॥ २३ ॥ ठाणवाट्ठियमग्गनासि संदेहमोहतिमिरहरा । कुग्गहिवग्गकोसियकुलकवलियलोयणा लोया ॥ २४ ॥ तेहिं पभसियं जं तं विहडइ नेय घडइ जुत्तीए । वंदे सुत्तं सुत्ताणुसारि संसारिभयहरणं ॥ २५ ॥ गुरुगयणयलपसाहण पत्तपहो पयडिया समदि सोहो । हयसिवपह संदेहो कयभव्वम्भोरुहविबोहो ॥ २६ ॥ सूरुव्व सूरिजिणवल्लहो य जाउ जए जुगपवरो । - श्रुतस्तव गाथा २२-२७ Jain Education International परिशिष्ट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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