Book Title: Jinvallabhsuri Granthavali
Author(s): Vinaysagar, 
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 388
________________ जिनवल्लभसूरि-ग्रन्थावलि ३१७ इति विविधविलसदर्थसुविशुद्धाहारमहितसाधुजनम्। श्रीजिनवल्लभरचितं प्रकरणमेतन्न कस्य मुदे? ॥ मादृश हइ प्रकरणे महार्थपंक्तौ विवेश बालोऽपि। यदुवृत्त्यमुलिलग्नस्तं श्रयत गुरुं यशोदेवम्॥ ___-पिण्डविशुद्धि-दीपिका-प्रशस्तिः ७. अज्ञात-[जेसलमेर भाण्डागारीय ताडपत्रीय प्रति से, समय लगभग १३वीं शती] दूसमदमनीरहरु दुसहभसमग्गहमयहरु हुंडवसप्पिणिसप्पगरुड संजमसिरिकुलहरु। निव्ववाइमयमत्तदंतिदारणपंचाणणु, गुरु-सावय-समणेस समण-आसेवण-काणणु। जुगपवर-सूरि जिणवल्लह ह जो आणाकरु गणहरु । सो सरहु म गुरु संसउ करहु जो भवियह भवभूरिहरु॥१२॥ जसु सन्नाणु अमाणु मणह विप्फुरइ फुरंतउ, पर कवित्त सुकइत्तबंध विरयइ जु तुरंतउ। जो निम्मलचारियरयणसंचयरयणायरु, . मिच्छतिमिरतमहरणु तत्तपयडणदिवायरु। भावारिमहीरुहमत्तकरि करणचरणसंजम सहिउ। तहु वीरपदं पय अणुसरहु सगुण गणिहि जे अविरहिउ ॥ १३॥ -जिनदत्तसूरि स्तुति छप्पय १२-१३ ८. कवि पद्मानन्द-[१२वीं शती का अन्तिम चरण] सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतैः, श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः। -वैराग्यशतक ९. श्रीमलयगिरि-[१३वीं शती] न चायमाचार्यो न शिष्टः। -षडशीति-टीका अवतरणिका १०. जिनपतिसूरि-[१३वीं शती का पूर्वार्द्ध] क्वेमाः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः सूक्ष्मार्थसारा गिरः, क्वाहं तद्विवृतौ क्षमः क्लमजुषां दुर्मेधसामग्रणीः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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