Book Title: Jinvallabhsuri Granthavali
Author(s): Vinaysagar,
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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३०८
परिशिष्ट - ४
विमलगुणचक्कवाया विसव्वहा विहडिया विसंघडिया। भमिरेहिं भमरेहिं पि पाविओ सुमणसंजोगो॥ १२९ ॥ भव्वजणेण जग्गियमवग्गियं दुट्ठसावयगणेण।
जड्डमवि खंडियं मंडियं य महिमंडलं सयलं ।। १३० ।। चन्द्रोपमा
अत्थमई सकलंको सया संसको वि दंसियपओसो।
दोसोदए पत्तपहो तेण समो सो कहं हुजा ।। १३१॥ विष्णूपमा
संजणियविही संपत्तगुरुसिरी जो सया विसेसपयं।
विण्हुव्व किवाणकरो सुरपणओ धम्मचक्कधरो॥ १३२॥ ब्रह्मोपमा
दंसियवयणविसेसो परमप्पाणं य मुणइ जो सम्म।
पयडविवेओ छंच्चरणसम्मओ चउमुहु व्व जए॥ १३३ ॥ शम्भूपमा
धरइ न कवड्डयं पि हुकुणइ न बंध जडाणमवि कया वि। दोसायरं च चक्कं सिरम्मि न चडावए कह वि॥ १३४ ॥ संहरइ न जो सत्ते गोरीए अप्पए न नियमगं।
सो कह तव्विवरीएण संभुणा सह लहिज्जुवमं ।। १३५ ।। विद्या
साइसएसु सग्गं गएसु जुगपवरसूरिनियरे सु। सव्वाओ विज्जाओ भुवणं भमिऊणस्संताओ॥ १३६॥ तह वि न पत्तं जुगवं जव्वयणपंकए वासं। करिय परुप्परमच्चंतं पणयओ हुँति सुहियाओ॥ १३७॥ अन्नुन्नाविरह विहु रोहतत्तगत्ताओ तणुईओ। जायाओ पुण्णवसा सावासपयं पि जो पत्तो ॥ १३८ ॥
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