Book Title: Jinabhashita 2009 09 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ करुणारस और शान्तरस में भेद आचार्य श्री विद्यासागर जी राह को मिटाकर सूख पाती है। करुणा की दो स्थितियाँ होती हैंएक विषय लोलुपिनी दूसरी विषय-लोपिनी, दिशा-बोधिनी। पहली की चर्चा यहाँ नहीं है चर्चा-अर्चा दूसरी की है! 'इस करुणा का स्वाद किन शब्दों में कहूँ! गर यकीन हो नमकीन आँसुओं का स्वाद है वह!' इसीलिए करुणा रस में शान्त-रस का अन्तर्भाव मानना बड़ी भूल है। उछलती हुई उपयोग की परिणति वह करुणा है नहर की भाँति! विषय को और विशद करना चाहूँगाधूल में पड़ते ही जल दल-दल में बदल जाता है किन्तु, हिम की डली वो धूलि में पड़ी भी हो बदलाहट सम्भव नहीं उसमें ग्रहण-भाव का अभाव है उसमें। और जल को अनल का योग मिलते ही उसकी शीतलता मिटती है और वह जलता है, ओरों को जलाता भी! परन्तु, हिम की डली को अनल पर रखने पर भी उस की शीतलता मिटती नहीं है और वह जलती नहीं. न जलाती औरों को। लगभग यही स्थिति है करुणा और शान्तरस की। और उजली-सी उपयोग की परिणति वह शान्त रस है नदी की भाँति! नहर खेत में जाती है दाह को मिटाकर सूख पाती है, और नदी सागर को जाती है मूकमाटी (पृष्ठ १५५-१५६) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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