Book Title: Jinabhashita 2009 02 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ कम बलवाले ही कम्बलवाले होते हैं • आचार्य श्री विद्यासागर जी शीत-ऋतु के वृत्तान्त द्वारा परावलम्बन के त्याग और स्वभावावलम्बन के द्वारा मोक्षप्राप्ति का उपदेश। आखिर अखर रहा है यह शिशिर सबको पर! पर क्या? एक विशेष बात है, कि शिल्पी की वह सहज रूप से कटती-सी रात है! एक पतली-सी सूती-चादर भर उसके अंग पर है! और वह पर्याप्त है उसे, शीत का विकल्प समाप्त है। फिर भी, लोकोपचार वश कुछ कहती है माटी शिल्पी से बाहर प्रांगण से ही-- "काया तो काया है जड़ की छाया-माया है लगती है जाया-सी... "कम बलवाले ही कम्बलवाले हाते हैं और काम के दास होते हैं। हम बलवाले हैं राम के दास होते हैं और राम के पास सोते हैं। कम्बल का सम्बल आवश्यक नहीं हमें सस्ती सूती-चादर का ही आदर करते हम! दूसरी बात यह है कि गरम चरमवाले ही शीत-धरम से भय-भीत होते हैं और नीत-करम से विपरीत होते हैं। मेरी प्रकृति शीत-शीला है और ऋतु की प्रकृति भी शीत-झीला है दोनों में साम्य है तभी तो अबाधित यह चल रही अपनी मीत-लीला है। सो.... कम से कम एक कम्बल तो.. काया पर ले लो ना! ताकि... और...." चुप हो जाती है माटी तुरन्त .... फिर शिल्पी से कुछ सुनती है मूकमाटी (पृष्ठ ९१-९३) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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