Book Title: Jinabhashita 2004 06 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ समाधि दिवस : आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज आचार्य श्री विद्यासागर जी कभी-कभी भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के द्वारा अल्प | और सावधानी है कि चोट, खोट के अलावा, अन्यत्र न पड़ समय में करना हो तो कठिनाई मालूम पड़ती है "मुनिपरिषन् । जाये। भीतर हाथ वहीं है जहाँ खोट है और जहाँ चोट पड़ रही मध्ये संनिषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्ग मवाग् विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं | है। यह सब गुरु की महिमा है। निर्गंथ आचार्य वर्यम्"- मुनियों की सभा में बैठे हुए, वचन किसी कवि ने यह भी कहा है कि "गुरु गोविंद दोउ बोले बिना ही मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान | खडे, काके लागू पॉय, बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे हों, ऐसे आचार्य महाराज को बताय"॥ हमें तो लगता है "बताना" क्या यहाँ तो "बनाना" किसी भव्य ने प्राप्त किया और पूछा कि भगवन्! किंनु खलु | शब्द होना चाहिए।"गोविंद दिया बनाय"। वैसे 'बताना' भी आत्मने हितं स्यादिति? अर्थात् हे भगवन् आत्मा का हित क्या एक तरह से 'बनाना' ही है। जब गणित की प्रक्रिया सामने आ है। तब आचार्य महाराज ने कहा कि आत्मा का हित मोक्ष है। जाती है तो उत्तर बताना आवश्यक नहीं रह जाता उत्तर स्वयं बन तब पुनः शिष्य ने पूछ लिया कि मोक्ष का स्वरुप क्या है? | जाता है। उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है? हम उन दिनों न तो उत्तर जानते थे, न प्रक्रिया या क्रिया इस बात का जवाब देने के लिए आचार्य पूज्यपाद स्वामी जानते थे, हम तो नादान थे और उन्होंने (आचार्य ज्ञानसागर कहते हैं कि तत्त्वार्थ सूत्र का प्रारंभ हो जाता है और क्रमश: दस जी) हमें क्या-क्या दिया हम कह नहीं सकते। बस ! इतना ही अध्यायों में जवाब मिलता है। ऐसा ही ये ग्रंथ हमारे जीवन से कहना काफी है कि हमारे हाथ उनके प्रति भक्ति भाव से हमेशा जुड़ा है। जो निग्रंथता का मूल स्त्रोत है। जुड़े रहते हैं। क्या कहें और किस प्रकार कहें गुरुओं के बारे में क्योंकि गुरु की महिमा आज तक कोई कह नहीं सका। कबीर जो भी कहा जायेगा वह सब सूरज को दीपक दिखाने के समान | का दोहा सुना था- "यह तन विष की बेलडी, गुरु अमृत की होगा। वह समुद्र इतना विशाल है कि अपनी दोनों भुजाओं को खान। शीश दिये यदि गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान" ॥ कैसा फैलाकर बताने का प्रयास; भावाभिव्यक्ति, उसका पार नहीं पा अद्भुत भाव भर दिया। कितनी कीमत आंकी है गुरु की। हम इतनी कीमत चुका पाये तो भी कम है। देने के लिए हमारे पास एक कवि ने गुरु की महिमा कहने का प्रयास किया और क्या है? यह तन तो विष की बेल है जिसके बदले अमृत की कहा कि जितने भी विश्व में समुद्र हैं उनको दवात बना लिया | खान, आत्मा मिल जाती है। यदि यह जीवन गुरु की अमृतजाये पूरा का पूरा पानी स्याही का रूप धारण कर ले और खान में समर्पित हो जाए तो निश्चित है कि जीवन अमृतमय हो कल्पवृक्ष की लेखनी बनाकर सारी पृथ्वी को कागज बनाकर | जाएगा। सरस्वती स्वयं लिखने बैठ जाये तो भी पृष्ठ कम पड़ जायेंगे, सोचो, समझो, विचार करो, इधर-उधर की बातें छोड़ो, लेखनी और स्याही चुक जायेगी; पर गुरु की गुरुता-गरिमा का | शीश भी यदि चला जाए तो भी समझना कि सस्ता सौदा है। पार नहीं पाया जा सकता। शीश देने से तात्पर्य गुरु के चरणों में अपने शीश को हमेशा के __'गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है गढ़-गढ़ काढ़त खोट । भीतर लिए रख देना, शीश झुका देना, समर्पित हो जाना। गुरु का हाथ पसार के, ऊपर मारत चोट। कुम्हार की भाँति मिट्टी को शिष्य के ऊपर उपकार होता है और शिष्य का भी गुरु के ऊपर जो दलदल बन सकती है, बिखर सकती है, तूफान में धूल उपकार होता है, ऐसे परस्पर उपकार की बात आचार्यों ने लिखी बनकर उड़ सकती है, घड़े का सुन्दर आकार देने वाले गुरु होते है। सो ठीक ही है। गुरु शिष्य से और कुछ नहीं चाहता; इतनी हैं। जो अपने शिष्य को घड़े के समान भीतर तो करुणा भरा | अपेक्षा अवश्य रहती है कि जो दिशाबोध दिया है उस दिशा हाथ पसार कर संभाले रहते हैं और ऊपर से निर्मम होकर चोट | बोध के अनुसार चलकर शिष्य भी भगवान बन जाए। यही भी करते हैं। उपकार है शिष्य के द्वारा गुरु के ऊपर। कितनी करुणा है। बाहर से देखने वालों को लगता है कि घड़े के ऊपर प्रहार कितना पवित्र भाव है। किया जा रहा है, लेकिन भीतर झाँक कर देखा जाये तो मालूम | "मैं" अर्थात् अहंकार को मिटाने का यदि कोई सीधा पड़ेगा कि कुछ और ही बात है। संभाला भी जा रहा है और | उपाय है तो गुरु के चरण-शरण। उनकी विशालता, मधुरता, चोट भी की जा रही है। दृष्टि में ऐसा विवेक, ऐसी जागरूकता | गहराई और अमूल्य छवि का वर्णन भी नहीं कर सकते। गुरु ने -जून जिनभाषित 2004 5 सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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