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उत्तम चरित्र वाले मुनियों को ऋषि कहा है। प्रवचनसार | विद्वानों से निवेदन है कि कृपया इस संबंध में अपने (तात्पर्यवृत्ति) गाथा 249 में ऋषियों के चार भेद कहे हैं: विचार लिखने का कष्ट करें। 1. राजर्षि : विक्रिया और अक्षीणऋद्धि प्राप्त साधु ।
जिज्ञासा : वैमानिक देवों की देवियां क्या अपने-अपने 2. ब्रह्मर्षि : बुद्धि एवं औषधिऋद्धि प्राप्त साधु ।
स्वर्ग में उत्पन्न नहीं होती? तो फिर कहाँ उत्पन्न होती हैं। 3. देवर्षि : आकाशगामी ऋद्धि सम्पन्न साधु ।
समाधान : उपरोक्त विषय पर श्री त्रिलोकसार में इस 4. परमर्षि : केवलज्ञानी अरिहन्त भगवान्।
प्रकार कहा है : उक्त सभी परिभाषाओं एवं भेदों से यह स्पष्ट होता है कि
दक्खिण उत्तरदेवी सोहम्मीसाण एव जायते । ऋषिगण, सम्यदृष्टि, ऋद्धि से सम्पन्न तथा परम उत्कृष्ट चारित्र
तहिं सुद्धदेविसहिया छच्चउलक्खं विमाणाणं ॥५२४॥ के धारी होते हैं। अतः ये सभी भावलिंगी ही मानने चाहिए तद्देवीओ पच्छा उवरिमदेवा णयंति सगठाणं । द्रव्यलिंगी नहीं।
सेसविमाणा छच्चदुबीसलक्ख देवदेविम्मिस्सा ॥५२५॥ अब दूसरी दृष्टि से विचार करते हैं : जैसे तिलोयपण्णत्ति अर्थ : दक्षिण उत्तर कल्पों की देवांगनाएं क्रम से सौधर्मेशान की उपरोक्त गाथाओं में भगवान पदमप्रभ के समवसरण में | में ही उत्पन्न होती हैं। वहाँ शुद्ध (मात्र) देवांगनाओं की उत्पत्ति ऋषियों की संख्या 3,30,000 कही है। (गाथा 1104) जिसका | से युक्त छह लाख और चार लाख विमान हैं। उन देवियों की विवरण गाथा 1125 से 1127 में इस प्रकार कहा है : पूर्वधर | उत्पत्ति के पश्चात् उपरिम कल्पों के देव अपने-अपने स्थान पर 2300, शिक्षक 2,69,000, अवधिज्ञानी 10,000, केवली 12,000, ले जाते हैं। सौधर्मेशान कल्पों में शेष छब्बीस लाख और चौबीस विक्रिया ऋद्धि के धारक 16,800, विपुलमति मन:पर्ययज्ञानी लाख विमान देव-देवियों की उत्पत्ति से संमिश्र हैं ।। ५२४, 10,300 और वादित्व ऋद्धि के धारी 9,600-3,30,000। ५२५॥
उपरोक्त संख्या में सभी ऋद्धिधारी मनिराज हैं। इन | भावार्थ : पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें, नौवें, ग्यारहवें, 3,30,000 मुनिराजों में से 3,14,000 मुनि (तिलोयपण्णत्ति | तेरहवें और पन्द्रहवें स्वर्ग के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में गाथा 1231) उसी भव से मोक्ष पधारे हैं। 12000 मुनि अनुत्तरों उत्पन्न हाता ह आर शष स्वग का दावया इशान स्वग म उत्पन्न में उत्पन्न हए हैं. शेष बचे केवल 4.000 मनि वैमानिक देवों में | होती हैं। ये वैमानिक देव अवधिज्ञान से अपने-अपने देवियों के उत्पन्न हए हैं। अतः तिलोयपण्णत्ति में दी गई ऋषियों की चिह्न जानकर उनको अपने-अपने स्थानों पर ले जाते हैं। संख्या को भावलिंगी ही मानना चाहिए। यद्यपि यह संभव है कि | तिलोयपण्णति अधिकार 8, गाथा 333 से 337 तक ठीक इसी समवसरण में अन्य द्रव्यलिंगी मुनि भी प्रवेश पाने एवं दिव्यध्वनि प्रकार कथन है। सिद्धान्तसार दीपक में भी 15वें अधिकार की सनने के अधिकारी हैं परन्त उनकी गणना ऋषियों में नहीं | 190 से 194 गाथा तक इसी प्रकार का कथन पाया जाता है। यह माननी चाहिए।
भी जानने योग्य है कि यदि कोई देवी पहले स्वर्ग से 15वें स्वर्ग __ यह भी विचारणीय है कि भगवान आदिनाथ के समवसरण
में ले जाई जाए तो भी उसकी लेश्या पीत ही रहती है, शुक्ल में श्रावकों की संख्या और श्राविकाओं की संख्या तीन लाख
नहीं हो जाती है। तथा अन्य स्वर्गों में जाने वाली सभी देवियां और पाँच लाख कुल आठ लाख लिखी है। भगवान आदिनाथ
मूल शरीर से ही जाती हैं। का विहारकाल 1000 वर्ष कम एक लाख पूर्व अर्थात् 84 लाख प्रश्नकर्ता: रविन्द्र कुमार जैन, सागर । x 84 लाख x 1 लाख- एक हजार वर्ष अर्थात् कई शंख वर्ष जिज्ञासा : पदमपुराण पर्व 109, श्लोक 28 में रामायण कहा गया है। यदि समवसरण में आने वाले सामान्य जैन धर्मियों | और महाभारत का अन्तर कुछ अधिक 64000 वर्ष लिखा है, की संख्या मात्र आठ लाख मानते हुए, इन श्रावकों को व्रत रहित | इसे घटित करके बताइये? एवं सामान्य जीवों की संख्या माना जाए तो उचित प्रतीत नहीं
समाधान : रामायण अर्थात् रामचंद्र जी के काल में और होता। अतः श्रावक-श्राविकाओं की संख्या को भी सम्यक्त्व
महाभारत अर्थात् श्रीकृष्ण के काल में श्री त्रिलोकसार के अनुसार और व्रत सहित मनुष्यों की संख्या मानना उचित है।
अन्तर इस प्रकार घटित होता है।
-जून जिनभाषित 2004 23
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