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ही है। जो अग्नि में पका ली गई है वह अचित्त ही है। जो | विघात नहीं किया जाता। अन्यथा उन कोपल आदि में
तप्त अर्थात् गर्म कर ली गई है वह भी अचित्त ही है।। उत्पन्न जीवों का विनाश होता। हरे अंकुर आदि में अनन्त 2. आम्ल रस तथा लवण मिश्रित का अर्थ यह है कि जिस निगोदिया जीव रहते हैं, ऐसे सर्वज्ञदेव के वचन हम लोगों प्रकार दूध में शक्कर डाली जाती है उसीतरह यदि वह फल ने सुने हैं, इसलिए, जिसमें गीले फल, पुष्प और अंकुर अन्दर में भी सर्वांश रुप से अम्ल या लवण से मिश्रित हो आदि से शोभा की गई है, ऐसा आपके घर का आंगन आज गया हो तब वह अचित्त होता है। जो ककड़ी, सेव आदि में हम लोगों ने नहीं खंदा है।' इस प्रकरण से भी स्पष्ट है कि संभव नहीं होता। जैसे कच्चे नारियल का पानी सचित्त होता टूटे हुए फल-पत्ते आदि सचित्त हैं। है उसमें नमक-मिर्च का चूर्ण डालकर घोल दिया जाये तो | 3. चारित्रचक्रवर्ती ग्रंथ के एक प्रसंग के अनुसार, एक बार एक वह अचित्त हो जाता है। इसीलिए समझदार दाता नारियल । बड़े शास्त्री जी आचार्य श्री के पास आए और उनके चरणों के पानी में नमक, मिर्च का चूर्ण डालकर ही आहार में देते पर पुष्प रख दिया। महाराज जी ने पूछा, "यह क्या किया"?
पं. जी ने फिर कहा, 'महाराज चरणों में पुष्प रखने से क्या 3. यंत्र से छिन्न-भिन्न करने का तात्पर्य है कि उस वस्तु को
बाधा हो गई?' महाराज ने कहा, 'शरीर की उष्मता से मिक्सी में डालकर ऐसा छिन्न-भिन्न कर लिया जाए कि उसके जीव मरण को प्राप्त हो जाएंगे और हमें जीवहिंसा का वह कपड़े में से छन सके। जैसे आम का आमरस बनाया
दोष लगेगा। अत: ऐसा नहीं करना चाहिए।' इस प्रसंग से जाता है। या अनार-संतरे-मौसमी आदि का जूस निकाला । स्पष्ट है कि चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर महाराज भी जाता है। तब तो उसे अचित्त कहा जा सकता है। केवल | वृक्ष से टूटे हुए फूल-पत्ती आदि को सचित्त मानते थे। चाकू से सेव के चार-छः टुकड़े करने पर वे अचित्त नहीं उपरोक्त तीनों आगम संदर्भो से स्पष्ट है कि वृक्ष से टूटे कहे जा सकते। क्योंकि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक हुए फल-फूल पत्ती आदि सचित्त ही होते हैं। उनमें असंख्यात जीवों की भी जघन्य अवगाहना बहुत छोटी हुआ करती है। अथवा अनंत जीव राशि पाई ही जाती है। इसीलिए तो अष्टमी, किसी-किसी त्रस जीव की भी अवगाहना इतनी छोटी देखी चतुर्दशी आदि के पर्व के दिनों में हरी वस्तु न खाने का विधान जाती है कि कपड़े के छेद में से भी पार हो जाया करती है | अभी तक समाज में चला आ रहा है। बुंदेलखण्ड आदि स्थानों तो फिर वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की अवगाहना का | में दशलक्षण पर्व आदि के दिनों में बहुत संख्या में जैनी भाई तो कहना ही क्या।
हरी वस्तु नहीं खाते हैं। कुछ महानुभाव पेड़ से टूटे हुए फल या पत्ते को अचित्त | यदि आहार में मौसमी का रस दिया जाये तो उसमें मौसमी अर्थात् जीव रहित बताते हैं। उनका ऐसा कहना आगम सम्मत का एक भी जीरे जैसा भाग भी यदि रह जाता है तो वह सचित्त नहीं है। क्योंकि : 1. आदिपुराण पर्व 8, श्लोक नं. 198 से 202 के अनुसार राजा कोई महानुभाव यह भी प्रश्न करते हैं कि सेव आदि को
प्रीतिवर्धन ने नगर की गलियों में फूल बिखरवा दिए थे | उबले हुए पानी में डालकर देने से वह वस्तु अस्वाद हो जाती है ताकि नगर में जाने वाले मुनि भूमि के अप्रासुक होने के अतः ऐसा करना ठीक नहीं। उनका ऐसा कहना उचित नहीं है। कारण राजा के यहाँ आहार के लिए आ जावें। यहाँ आचार्य अग्नि के द्वारा उबलने पर पानी की सुस्वादुता भी स्वल्प रह जिनसेन ने टूटे हुए फूलों को अप्रासुक अर्थात् सचित्त माना जाती है तो क्या साधु पानी भी बिना उबला हुआ लेने लगें?
वास्तविकता यह है कि सचित्त फल पौष्टिक, स्वादिष्ट और 2. आदिपुराण पर्व 38, श्लोक नं. 17-19 में, जब महाराजा | जीवसहित होते हैं। सचित्त त्यागी श्रावकों और मुनियों को ये
भरत ने सत्कार योग्य व्यक्तियों की परीक्षा की इच्छा से घर | तीनों ही बातें अप्रिय हैं। उनकी दृष्टि तो इंद्रियों के दमन पर, के आंगन में पत्ते-फूल आदि बिछाकर उन व्यक्तियों को कषाओं के शमन पर तथा जीवदया पर रहती है। अतः वे बुलाया था, तब पूछने पर, उस मार्ग से न आने वालों ने अचित्त जल, फल, शाक आदि को ही ग्रहण करते हैं। कहा, 'आज पर्व के दिन कोपल, पत्ते तथा पुष्प आदि का
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा।
है।
जून जिनभाषित 2004 25
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