Book Title: Jinabhashita 2004 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ करीतियों के परिहार तथा हित संवर्द्धन रूप क्रियाओं को सबल | अर्थ और काम, इन दोनों पुरुषार्थों की भी जड़ धर्म-पुरुषार्थ ही रूप में प्रस्तुत किया है। उक्त संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त | है। अर्थ और कामपुरुषार्थ, ये दोनों तो पापानुबन्धी हैं। इन दोनों उन्होंने हिन्दी में भाग्य परीक्षा, ऋषभचरित, गुणसुन्दर वृत्तान्त, | के सम्पादन में मनुष्य को कुछ न कुछ पाप भी करना ही पड़ता पवित्र मानव जीवन, कर्त्तव्यपथ प्रदर्शन, सचित्त विचार, सचित्र | है, किन्तु धर्म पुरुषार्थ ही एक ऐसा है जो निर्दोष होकर इस विवेचन, स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैनधर्म, सरल जैन | प्राणी को दुःखों से भरे हुए इस संसार से पार उतारने वाला होता विवाह विधि, इतिहास के पन्ने तथा ऋषि कैसा होता है जैसी | है।। अमूल्य कृतियां रचीं। उन्होंने प्रवचनसार, समयसार, तत्वार्थसूत्र, | आचार्य श्री की लेखनी जब चलती है तो सहज ही नीति मानवधर्म, विवेकोदय, देवागम स्तोत्र, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि | के पिटारे खुलते चलते हैं। दृष्टान्तों से भी वे अपने कथन को ग्रन्थों की टीका लिखी तथा शान्तिनाथ पूजन विधान का सम्पादन सशक्त बनाने में सिद्ध हस्त हैं। किया। 'गुणसुन्दर वृत्तान्त' का पद्य कितना कुछ कह जाता हैआचार्य श्री ज्ञानसागर जी के संस्कृत साहित्य पर आचार्य ज्ञानी कहते हैं होता है स्वार्थ-पूर्ण भाई-चारा। श्री के ही प्रशिष्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज की जहाँ स्वार्थ में बट्टा आया हो जावे विरुद्ध सारा॥ प्रेरणा से उन्हीं के सानिध्य में 5 अखिल भारतीय विद्वत्संगोष्ठियां भरे पड़े हैं उदाहरण इसके दुनिया में हो साधो। सांगानेर, अजमेर, ब्यावर, किशनगढ़ एवं जयपुर में आयोजित कौरव पाण्डव जूझ मरे इसको अपने दिल में साधो॥ की गयीं जिनसे जनसामान्य को तो लाभ मिला ही, साथ ही व्यसन मुक्ति के सम्बन्ध में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी संस्कृत के प्रति एक धीर, गंभीर, प्रौढ़, काव्यकलामर्मज्ञ महाकवि महाराज के विचार बड़े दूरगामी थे। आज सारे विश्व का बहुत के रूप में प्रतिष्ठा प्रतिष्ठापित हुई, जो गौरव की बात है। सारा धन व्यसन मुक्ति के प्रचार-प्रसार पर व्यय करना पड़ रहा आज यदि हम आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के है क्योंकि धन की बहुलता और उसके अन्यायोपार्जित होने के व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा उनके अवदान का मूल्यांकन करें तो कारण मांसभक्षण, मदिरापान, धूतक्रीड़ा (केसिनो), वेश्यावृत्ति, पायेंगे कि उन्होंने जो भी दिया अमूल्य ही दिया। उनकी सर्वश्रेष्ठ शिकार, फैशन परेड (कामोद्दीपन के नये रुप) आदि से बहुत कृति हैं उनके शिष्य-आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, जिन्होंने सारा जन-समूह आकर्षित हो रहा है। ऐसे में आचार्य श्री के ये अपनी निर्दोष दिगम्बर चर्या से इस बीसवींशती के उत्तरार्द्ध में वचन कितने प्रभावी प्रतीत होते हैं - दिगम्बरत्व का मान बढ़ाया और संत-स्वरुप को महिमामण्डित किया आज उनके 200 से अधिक शिष्य (मुनि, आर्यिकाएं, धूत-मांस-मदिरा-पराङ्गना-पण्यदार-मृगया-चुराश्चना। ऐलक, क्षुल्लक) भारतीय संत-काया के भाल बने हुए हैं। वे नास्तिकत्वमपि संहरेत्तरामन्यथा व्यसन सङ्कु ला धरा॥ (जयोदय महाकाव्य 2/125) जहां जाते हैं लोग आस्तिक बन जाते हैं और जाते हैं तो अपने पीछे जिन-आस्था का विशाल सागर छोड़ जाते हैं। आज ऐसा अर्थात् मनुष्य जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, कौन है जो गुरुवर ज्ञानसागर, उनके शिष्य विद्यासागर एवं प्रशिष्यों परस्त्रीसंगम, वेश्यागमन, शिकार और चोरी तथा नास्तिकपना के प्रति नतमस्तक न हो? इन सबको त्याग दे, अन्यथा यह सारा भूमण्डल तरह-तरह की आपदाओं से भर जायेगा। ___ आचार्य ज्ञानसागर जी के सृजनात्मक सरोकार तीन बातों को लेकर रहे - (1) समाज (2) सामाजिकजन (3) धर्म । | आज समाज में त्याग (दान) की बहुलता है किन्तु विधि, धर्म और दर्शन के प्रति आस्थावान व्यक्ति सदैव सुखी होता है। द्रव्य, पात्र आदि की विशेषता नहीं होने से अपेक्षित परिणाम भी दयोदय काव्य में उनके यह वचन बड़े प्रेरक हैं - नहीं मिलता। मन मना करता है और काया दान कर देती है, शरीरपूजा की चाह जो बलवती हो गयी है, किन्तु आचार्य श्री त्रिवर्गसंसाधन मन्तरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य। ज्ञानसागर जी तो मन से किये गये त्याग को ही श्रेयस्कर मानते तत्रापि धर्मः प्रवरोऽस्ति भूमौ नतं बिना यद्भवतोऽर्थकामौ॥ हैं - पापानुबन्धिनावर्थकामौ तनुमती मतौ त्यागोऽपि मनसा श्रेयान्न शरीरेण केवलम्। धर्म एवोद्धरेदेवं संसारादगहनाश्रयात्॥ मूलोच्छेदं विना वृक्षः पुनर्भवितुमर्हति॥ अर्थात् जो मनुष्य होकर के धर्म, अर्थ और काम इन तीन अर्थात्, किसी वस्तु का मन से किया हुआ त्याग ही पुरुषार्थों को नहीं साधता, उसका जन्म लेना ही व्यर्थ है। उन कल्याणकारी होता है, केवल शरीर से किया हुआ त्याग तीनों में भी धर्मपुरुषार्थ मुख्य माना गया है, उसे भी नहीं भूलना कल्याणकारी नहीं होता, क्योंकि मल के उच्छेदन किए बिना चाहिये। शेष दोनों में गलती हो जाये तो हो भी जाये, क्योंकि | 8 जून जिनभाषित 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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