Book Title: Jinabhashita 2004 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ तरह के उपयोग के बारे में सोचें। इस प्रक्रिया से आपके दिमाग को नई तरकीबें सूझेगीं। बहुत सी चीजों के बारे में सोचने पर दिमाग में उथल-पुथल होगी और वह पहले से ज्यादा क्रियाशील बना रहेगा। गुणवत्तापूर्ण जीवन एवं सफलता प्राप्त करने के लिए हम दूसरों को सदैव कुछ न कुछ दें। दूसरों को देने से ही हमें प्राप्ति होती है। सभी के साथ ईमानदारी पूर्ण व्यवहार करें। सभी को उच्च स्तरीय सम्मान दें। दूसरों की सहायता प्राप्त करें। सभी व्यक्तियों की चिंता करें। उन्हें सहयोग दें। उन्हें सहानुभूतिपूर्वक सुनें । उन्हें प्यार करें। उन्हें भावनात्मक सहयोग दें। आगे बढ़ने १०८ आ. विरागसागर महाराज के सुशिष्य विशुद्धसागर जी की अनमोल कृति 'आत्मबोध' साभार प्राप्त हुई, हमारे संस्था के ग्रंथालय के लिए जो अत्यंत उपयुक्त रहेगी। ग्रंथ समीक्षा : आत्मबोध यह कृति मुनि विशुद्धसागरजी की प्रगतिशील, अनुभूतिशील जीवन का लिपीबद्ध व्यक्तीकरण है। वास्तव में उनकी डायरी में मनन-चिंतन का उदात्त प्रतिबिंब देखने से वाचक हर्षविभोर होकर अपनी लघुता अनुभवता है। श्रमणचर्या इस ग्रंथ में चर्चा की बात न रहकर चर्या के लिए प्ररेणा देती है। प्रो. रतनचंद्रजी ने इनकी महती एक दृष्टि डालकर वाचकवृंद का ध्यान किताब पढ़ने के लिए आकर्षित किया है। वर्तमान में श्रमणचर्या करते समय वे स्वयं तारण तरणहार बनकर काष्ठ नौका के रूप में हमारे लिए आधार बने हैं। मुनि विशुद्धसागरजी ने डायरी में स्वयं को उद्बोधन हर पत्रे में किया है न किसी दूसरे को सुधारने के लिए किंतु खुद का निरीक्षण, परीक्षण, समीक्षण करके सच्चे सुधारक रहे हैं। एक कवि कहता है। 'रे सुधारक जगत की चिंता मत कर यार, तेरे दिल में जग बसे पहले ताही सुधार' यह कृति मुनि विशुद्धसागरजी के उन्नत, भाव, सत्य, शिव, सुंदर जीवन की आत्मकथा है, जिसमें अति प्रशंसा का अहमगंड या स्वयं के प्रति न्यूनगंड का स्पर्श नहीं है। साथ ही तत्वज्ञान का संतुलित निवेदन है। छोटे-छोटे विषय लेकर महान आशय चिंतन के द्वारा व्यक्त किये हैं। शीर्षक बड़े आकर्षक हैं। जैसे धन की पूजा धनत्रयोदशी में की Jain Education International के लिए उन्हें प्रेरित करें। किसी विशिष्ट क्षेत्र का हमें, विशेष अध्ययन एवं विस्तृत अनुभव होता है। हम अपने विशेष ज्ञान एवं अनुभव का लाभ दूसरों को दें । अन्य व्यक्तियों को अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सहयोग दें। हम अपना लक्ष्य प्राप्त करने में उनका सहयोग प्राप्त करें। सदैव सेवा की भावना रखें। अन्य व्यक्तियों की सेवा से ही हम महानता और महान सफलताएं प्राप्त करते हैं। 30, निशात कालोनी, भोपाल दूरभाष: 0755-2555533 जाती है। उससे अंधश्रद्धा का निर्मूलन हो जाता है और आगम नेत्र द्वारा सही दिशा मिलती 1 हर शीर्षक रहस्यपूर्ण है। जो वाचक को आंतरिक चेतना जगाती है। ग्रंथ के हर एक पन्ने को नीचे की सूक्ति सुभाषित द्वारा सजाया है। वह सुविचार दिनभर मन में विचार के तरंग के रूप में उठते हैं। उनके आत्मबोध द्वारा सभी भव्य आत्माओं को बोध हो जाता है। खुद को खुदा समझकर (परमात्मा) उद्बोधन होने से सभी भव्य आत्मायें उद्बोधित हो जाती हैं। ग्रंथरूप में प्रकाशित करने वाले सभी सहयोगी धन्यवाद के पात्र हैं ही किंतु मुनि विशुद्धसागरजी में पंचपरमेष्ठी एक रूप सौंदर्य निहारने पर हम इसी भव में नही किंतु भव-भव में कृतज्ञ - ऋणी रहेंगे। कृति का अंतरंग सद्विचारों से परिपूर्ण है । वैसा ही बहिरंग भी। भ. शांतिनाथ के दर्शन लेते ही मन आकर्षित हो जाता है। मूल्य स्वाध्याय, मनन, चिंतन है। लेकिन इस अर्थयुग में वाचक अवमूल्य न करे किंतु अपना अमूल्य जीवन के क्षण देकर कृतार्थ रहे । नोट:- संस्था में तीन ग्रंथालय हैं। सामूहिक वाचना के लिए ज्यादा प्रति मिले तो वाचक, स्वाध्यायी, अध्यापक को ज्यादा लाभ होगा। श्राविका मासिक में 'आत्मबोध' ग्रंथ का मराठी अनुवाद क्रम से प्रकाशित कर रहे हैं । For Private & Personal Use Only ब्र. विद्युल्लता शहा अध्यक्षा: श्राविका संस्थानगर, सोलापुर -जून जिनभाषित 2004 19 www.jainelibrary.org

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