Book Title: Jinabhashita 2004 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ रूप है अतः अरिहंत व्यक्ति के रूप में अनेक हैं, किन्तु गुणों के परमेष्ठी में भी कोई अवान्तर भेद नहीं है। इसलिए उपाध्याय में रूप में सब एक ही हैं। अतः अरहंतों को नमस्कार हो इसमें ये 'सव्व' विशेषण की आवश्यकता नहीं है। सभी अरहंत व्यक्ति अन्तर्भूत हो जाते हैं अत: वहाँ 'सव्व' शब्द ___अब पाँचवाँ नम्बर आता है साधु परमेष्ठी का। साधु के २८ की आवश्यकता नहीं है। मूलगुण होते हैं। इसके साथ ही इन्हें उत्तरगुण भी पालन करने इसी प्रकार सिद्ध व्यक्ति रूप से अनन्त हैं गुणों के रूप में होते हैं। लेकिन इनके पालन करने में सभी साध एक जैसे नहीं वे सब एक ही हैं क्योंकि आठ गुण जो एक सिद्ध में हैं वे ही होते। किसी के मूलगुण पलते हैं तो उत्तरगुण नहीं पलते और आठ गुण उसी प्रकार अनन्तानन्त सिद्धों में हैं अतः सिद्धों को | मूलगुण में भी दोष लगता है अतः इन साधुओं में परस्पर नमस्कार हो यह कहने से अनन्तानन्त सिद्धों को नमस्कार हो | भिन्नता है। यहाँ पूछा जा सकता है कि जब मूलगुण नहीं पलते जाता है अतः यहां भी सिद्धों के साथ 'सव्व' विशेषण की | तब उन्हें साधु ही नहीं कहना चाहिए। लेकिन शास्त्रकारों ने आवश्यकता नहीं है। उन्हें साधु माना है। अतः इन भावलिंगी साधुओं के शास्त्रकारों तीसरे परमेष्ठी आचार्य परमेष्ठी हैं- आचार्य परमेष्ठी के ३६ ने पाँच भेद किए हैं जिनके पाँच नाम इसप्रकार हैं- 1) पुलाक, मूल गुण होते हैं । शिष्यों को दीक्षा निग्रह अनुग्रह इनका मुख्यतः 2) वकुश, 3) कुशील, 4) निग्रंथ, 5) स्नातक। काम है। इनके ३६ मूलगुणों के पालन में किसी प्रकार का कोई 1) इनमें पुलाक मुनि वे हैं जो उत्तरगणों की भावना नहीं अपवाद नहीं है यथावत् पालने ही होते हैं। अत: आचार्यों के रखते और व्रतों में भी कभी-कभी दोष लगाते हैं वे अन्तर्गत कोई भेद नहीं है। समयानुसार वे आचार्य पद छोड़ भी पुलाक हैं। सकते हैं, लेकिन उन्हें अपने मूल गुण पालन में कोई छूट नहीं | 2) वकुश व्रतों का अखण्ड पालन करने पर भी शरीर, दी जा सकती। इसलिए आचार्यों को नमस्कार करने में 'सव्व' उपकरण आदि की विभूषण में अनुरक्त हैं। पद की कोई आवश्यकता नहीं है। आचार्यों को नमस्कार हो, कुशील दो प्रकार के हैं। प्रतिसेवना कुशील और कषाय यह कहने में सभी आचार्यों का ग्रहण अपने आप ही हो जाता कुशील। प्रतिसेवना- कुशील जो मूलगुणों, उत्तरगुणों का पालन करते हैं शरीर उपकरण आदि की मूर्छा से चौथे परमेष्ठी उपाध्याय हैं- उपाध्याय शब्द का अर्थ है रहित नहीं है वे प्रतिसेवना कुशील हैं। कषाय कुशील'उपेत्य अधीयन्ते यस्तात् सः' अर्थात् जिनके निकट बैठ पढ़ा जिन्होंने अन्य कषायों को वश में कर लिया है, किन्तु जाय वे उपाध्याय हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपाध्याय में संज्वलन कषाय के अधीन हैं वे कषाय कुशील हैं। परमेष्ठियों में कोई अन्तर नहीं है सब एक ही हैं। उपाध्याय के निर्ग्रन्थ-क्षीण मोही १२वें गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ हैं यहाँ २५ मूलगुण भी माने हैं। वे २५ मूलगुण ११ अंग और १४ पूर्व ग्रन्थ का अर्थ अन्तरंग परिग्रह कषाय से है। हैं। इन दोनों का जोड़ २५ होता है। यह २५ प्रकार का श्रुत 5) स्नातक- परिपूर्ण ज्ञानी( केवलज्ञानी) स्नातक हैं। इस द्वादशांग (१२ अंग) में गर्भित है। यह द्वादशांग श्रुत दो प्रकार तरह साधु परमेष्ठी के ये पाँच भेद जिनके पृथक्-पृथक् का है एक द्रव्य श्रुत दूसरा भाव श्रुत। नाम हैं जो गुण आदि की मात्रा से एक दूसरे से पृथक् संपूर्ण द्रव्य श्रुत का उस द्रव्य श्रुत के भाव का जिसको हैं उन सबका ग्रहण करने के लिए साधु परमेष्ठी के साथ ज्ञान है वह उपाध्याय परमेष्ठी है। उमा स्वामी आचार्य की प्रशंसा 'सव्व' विशेषण दिया है। अर्थात् 'णमो लोए सव्वसाहूणं' में उन्हें 'श्रुत केवलिदेशीय' कहा गया है इसका अभिप्राय यही इस पद में 'सर्व साधुओं को नमस्कार हो' इसका अर्थ है कि उन्हें पूर्ण द्रव्य श्रुत का ज्ञान नहीं था फिर भी उन्हें यह है कि लोक में उक्त पाँच प्रकार के साधुओं को भावश्रुत का अत्यधिक ज्ञान था। इसलिए श्रुत केवली कल्प थे। नमस्कार हो, अन्य परमेष्ठियों में इस प्रकार गुण भेद को इस प्रकार द्वादशांग का सारभूत विशिष्ट ज्ञान जिनको होता है वे लेकर कोई भेद नहीं है अत: उनके साथ 'सव्व' विशेषण अन्य मुनियों की दीक्षा देने वाले उपाध्याय परमेष्ठी हैं। उपाध्याय नहीं दिया है। जिनभाषित के लिए प्राप्त दान राशि स्व. विमलादेवी के स्वर्गवास होने पर उनकी पुण्य स्मृति में उनके सुपुत्र श्री सेठ विजयकुमार जैन, सेठ हवेली, मथुरा द्वारा 500/- रु. प्राप्त। 16 जून जिनभाषित 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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