Book Title: Jinabhashita 2003 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 7
________________ श्रावकों को मंत्रतंत्रादि अन्य बाह्य क्रियाकाडों में उलझाए रखा। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि श्रमण संस्कृति एवं जैन धर्म के संरक्षण सवंर्द्धन में भट्टारक परंपरा का अभूतपूर्व योगदान रहा? दिगम्बर मुनि की अवस्था में रहने वाले भट्टारकों ने तो अवश्य जैन साहित्य सृजन में योगदान दिया, किंतु वस्त्रादि-परिग्रहधारी भट्टारकों के द्वारा जिनवाणी का लेखन नहीं हुआ। यदि भट्टारकों ने जैन शास्त्रों का संरक्षण भी किया तो ज्ञानप्रसार की दृष्टि से नहीं बल्कि उनके दर्शनों के बदले धन वसूली के उद्देश्य से किया तथा इन ग्रंथों को तालों में बंद रखकर उन्होंने ज्ञान प्रसार को अवरुद्ध ही किया। षट्खंडागम की भूमिका में मख्य संपादक डॉ. हीरालाल जी जैन की निम्न पंक्तियाँ पढ़कर किस जिनवाणी-भक्त की आँखों में आँसू नहीं आयेंगे? "हमें जो अनुभव मिला है उसे हमारा हृदय भीतर ही भीतर खेद और विषाद के आवेग से रो रहा है। इन सिद्धांतग्रंथों की एक मात्र प्रति किस प्रकार तालों में बंद रही और अध्ययन की वस्तु न रहकर पूजा की वस्तु बन गई। यदि ये ग्रंथ साहित्य क्षेत्र में प्रस्तुत रहते, तो उनके आधार से अब तक न जाने कितना किस कोटि का साहित्य निर्माण हो गया होता। ऐसी विशाल सम्पत्ति पाकर भी हम दरिद्री ही बने रहे। ... हमें उस मनुष्य के जीवन जैसा अनुभव हुआ, जिसके पिता की अपार कमाई पर कोई ताला लगाकर बैठ जाय और वह स्वयं एक-एक टुकड़े के लिए दर-दर भीख माँगता फिरे और इससे जो हानि हुई वह किसकी?" मूडबिद्री के भट्टारक जी ने प्रारंभ में तो मूल सिद्धांत ग्रंथों की प्रतिलिपि को भी बाहर ले जाने की आज्ञा नहीं दी। लिपिकार किसी प्रकार एक प्रति गुप्त रूप से बाहर ले आये, जिसकी और प्रतिलिपियाँ की गई और उन्हीं के आधार पर हिंदी टीका एवं संपादन कार्य संभव हो सका। महासभा के प्रस्ताव में भट्टाकर परंपरा द्वारा जैन वाड्मय के संरक्षण एवं प्रणयन की प्रशंसा की है, यह निराधार है। वास्तव में तो वर्तमान भट्टाकर संस्था ने, न तो जैन वाङ्मय के तत्त्वदर्शन का प्रसार किया है और न जैन वाड्मय का प्रणयन ही किया है। प्रस्ताव में आगे कहा गया है कि वर्तमान दिगम्बर जैन समाज के स्वरूप की रक्षा करने में अपने संतुलित अनुशासन के द्वारा महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। वास्तविकता तो यह है कि भट्टारक संस्था ने दिगम्बर समाज को तत्त्वज्ञान एवं संयम से वंचित रखने का ही प्रयास किया है और समाज को धर्मक्षेत्र में पंगु बनाकर रखा है। इन्होंने धन वसूलने के लिए समाज को जिस प्रकार आतंकित किया है, उसी को महासभा ने संभवत: संतुलित अनुशासन का नाम दिया है। यह आश्चर्य-मिश्रित खेद का विषय है कि प्रस्ताव में आगे भट्टारक-परंपरा को स्वस्थ परंपरा घोषित किया है। जिस प्रकार भट्टारक निर्दोष दिगम्बर मुनिभेष को विकृत कर वस्त्रादि परिग्रह धारणकर मठाधीश होकर विलासी जीवन जीने लगे, उससे तो यही कहा जा सकता है कि जैन धर्म में भट्टारक परंपरा से अधिक अस्वस्थ परंपरा और कोई नहीं है। दिगम्बर जैन धर्म के महान् प्रभावक आचार्य कुंदकुंद ने दर्शनपाहुड में दिगम्बर परंपरा में तीन ही लिंगों की व्यवस्था दी है। एगं जिणस्स रूवं विदियं उक्किट्ठ सावयाणं तु। अवरट्ठियाण तइयं चउत्थं पुण लिंग दंसणं णस्थि॥ 18॥ पहला जिनलिंग अर्थात् दिगम्बर मुनि लिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का लिंग अर्थात् क्षुल्लक-ऐलक का लिंग और तीसरा आर्यिका-लिंग। गाथा के अंत में आचार्य देव ने यह घोषित किया है कि जैनदर्शन में उक्त तीन लिंगों के अतिरिक्त और किसी चौथे लिंग की व्यवस्था नहीं है। महासभा निश्चित करे कि जैन दर्शन की आचार्य कुंदकुंद द्वारा स्थापित व्यवस्था में वर्तमान भट्टारकों का कौन सा लिंग है? निस्सन्देहरूप से भट्टारक मुनि नहीं हैं और न वे उत्कृष्ट श्रावक हैं, यद्यपि भट्टारक अपने आपका मुनि के समान सम्मान कराना चाहते हैं। पीछी कमंडल भी रखते हैं, किंतु न वे स्वयं और न महासभा ही उनका मुनि होना स्वीकार करती है। दूसरा विकल्प उत्कृष्ट श्रावक होने का है, सो परिग्रहधारी एवं मठाधीश होने के कारण तथा गृहविरत उद्दिष्टत्यागी नहीं होने के कारण उनको उत्कृष्ट श्रावक भी नहीं माना जा सकता । इस प्रकार भट्टारकों के स्थापित तीन लिंगों में से कोई लिंग सिद्ध नहीं होता और चौथा लिंग जैनदर्शन में होता नहीं, अत: भट्टारकों का जैन दर्शन की परंपरा में कोई स्थान नहीं है। जैन आचार शास्त्रों में भट्टारक लिंग की कहीं कोई - अप्रैल 2003 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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