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विनयावनति
आचार्य श्री विद्यासागर जी विनय जब अंतरंग में प्रादुर्भूत हो जाती है, तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है, आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भुत होती है और व्यवहार में प्रदर्शित होती है।
विनय का महत्त्व अनुपम है। यह वह सोपान है, जिस पर | गई और सभा अनुशासन से बाहर हो गई। पर तत्काल ही उन आरूढ़ होकर साधक मुक्ति की मंजिल तक पहुँच सकता है। भारतीय सज्जन ने थोड़ा विचार कर कहना शुरू किया- "क्षमा विनय आत्मा का गुण है और ऋजुता का प्रतीक है। यह विनय | करें, पचास प्रतिशत अमेरिकन मूर्ख नहीं होते।" इन शब्दों को तत्त्व-मंथन से ही उपलब्ध हो सकता है। विनय का अर्थ है सुनकर सभा में फिर शान्ति हो गई और सब लोग यथास्थान बैठ सम्मान, आदर, पूजा आदि। विनय से हम आदर और पूजा तो गये। देखो, अर्थ में कोई अन्तर नहीं था, केवल शब्द विनय द्वारा प्राप्त करते ही हैं, साथ ही सभी विरोधियों पर विजय भी प्राप्त कर | वह भारतीय सबको शान्त करने में सफल हो गया। सकते हैं। क्रोधी, कामी, मायावी, लोभी सभी विनय द्वारा वश में विनय जब अन्तरंग में प्रादुर्भूत हो जाती है तो उसकी किये जा सकते हैं। विनयी दूसरों को भलीभाँति समझ पाता है ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है
और उसकी चाह यही रहती है कि दूसरा भी अपना विकास करे। आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में अविनय में शक्ति का बिखराव है, विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण भी प्रदर्शित होती है। विनय गुण समन्वित व्यक्ति की केवल यही है। कोई आलोचना भी करे तो हम उसकी चिन्ता न करें। विनयी भावना होती है कि सभी में यह गुण उद्भूत हो जाय। सभी आदमी वही है, जो गाली देनेवाले के प्रति भी विनय का व्यवहार | विकास की चरम सीमा प्राप्त कर लें। करता है।
मुझ से एक सज्जन ने एक दिन प्रश्न किया, "महाराज, एक जंगल में दो पेड़ खड़े हैं- एक बड़ का और दूसरा आप अपने पास आनेवाले व्यक्ति से बैठने को भी नहीं पूछते । बुरा बेंत का। बड़ का पेड़ घमण्ड में चूर है। वह बेंत के पेड़ से कहता | लगता है। आप में इतनी भी विनय नहीं, महाराज।" मैंने उनकी है- "तुम्हारे जीवन से क्या लाभ है? तुम किसी को छाया तक | बात बड़े ध्यान से सुनी और कहा। "भैया, एक साधु की विनय नहीं दे सकते और फल तथा फूल का तो तुम पर नाम ही नहीं। । और आपकी विनय एक सी कैसे हो सकती है? आपको मैं कैसे मुझे देखो, मैं कितनों को छाया देता हूँ। यदि मुझे कोई काट भी ले | कहूँ"आइये बैठिये।" क्या यह स्थान मेरा है? और मान लो कोई तो मेरी लकड़ी से बैठने के लिए सुन्दर आसनों का निर्माण हो | केवल दर्शन मात्र के लिए आया हो तो? इसी तरह मैं किसी से सकता है। तुम्हारी लकड़ी से तो दूसरों को पीटा ही जा सकता जाने की भी कैसे कह सकता हूँ? मैं आने-जाने की अनुमोदना है।" सब कुछ सुनकर भी बेंत का पेड़ मौन रहा। थोड़ी देर में कैसे कर सकता हूँ? कोई मान लो रेल या मोटर से प्रस्थान करना मौसम ऐसा हो जाता है कि तूफान और वर्षा दोनों साथ-साथ चाहता हो, तो मैं उन वाहनों की अनुमोदना कैसे करूँ, जिनका मैं प्रारम्भ हो जाते हैं। कुछ ही क्षणों में बेंत का पेड़ साष्टांग दण्डवत् वर्षों पूर्व त्याग कर चुका हूँ। और मान लो कोई केवल परीक्षा करने लगता है, झुक जाता है। किन्तु बड़ का पेड़ ज्यों का त्यों करना चाहता हो तो, उसकी विजय हो गयी और मैं पराजित हो खड़ा रहा। देखते-देखते ही पाँच मिनट में तूफान ने उसे उखाड़ जाऊँगा। आचार्यों का उपदेश मुनियों के लिए केवल इतना ही है फेंका । बेंत का पेड़ जो झुक गया था, तूफान के निकल जाने पर | कि वे हाथ से कल्याण का संकेत करें और मुख का प्रसाद बिखेर फिर ज्यों का त्यों खड़ा हो गया। विनय की जीत हुई, अविनय | दें। इससे ज्यादा उन्हें कुछ और नहीं करना है। हार गया। जो अकड़ता है, गर्व करता है उसकी दशा बिगड़ती ही
“मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक
क्लिश्यमानाविनयेषु ।" यह सूत्र है। तब मुनि आपके प्रति कैसे हमें शब्दों की विनय भी सीखना चाहिये। शब्दों की अविनय अविनय की भावना रख सकता है। उसे तो कोई गाली भी दे तो से कभी-कभी बड़ी हानि हो जाती है। एक भारतीय सज्जन एक भी वह सबके प्रति मैत्री-भाव ही रखता है। जंगल में दंगल नहीं बार अमेरिका गये। वहाँ उन्हें एक सभा में बोलना था। लोग उन्हें करता, मंगल में अमंगल नहीं करता। वह तो सभी के प्रति मंगलदेखकर हँसने लगे और जब वे बोलने के लिये खड़े हुये तो हँसी भावना से आतप्रोत है। और अधिक बढ़ने लगी। उन भारतीय सज्जन को थोड़ा क्रोध आ
सो धर्म मुनिन कर धरिये, तिनकी करतूति उचरिये। गया, मंच पर जाते ही उनका पहला वाक्य था 'पचास प्रतिशत
ता। सुनिये भवि प्राणी, अपनी अनुभूति पिछानी।। अमेरिकन मूर्ख होते हैं। अब क्या था। सारी सभा में हलचल मच साधु की मुद्रा तो ऐसी वीतरागतामय होती है, जो दूसरों 8 अप्रैल 2003 जिनभाषित -
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