________________
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। | वही अज्ञानी का आचरण अविवेक पूर्वक होने से कर्मबन्ध का तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रञ्च॥
कारण है। (ज्ञानार्णव २१/७) पुरुषार्थसिद्धयुपाय २१
आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने तो मोक्ष के हेतुओं में ज्ञान रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का अखिल को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। वे समयसार की गाथा १५३ की प्रयत्न पूर्वक आश्रय लेना चाहिए क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर टीका में लिखते हैं- "ज्ञान के अभाव में अज्ञानियों में अन्तरंग ही ज्ञान एवं चारित्र सम्यक् बनते हैं। तीनों के सम्यक् होने पर ही | व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि होते हुए भी मोक्ष नहीं है, मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है।
क्योंकि अज्ञान ही बन्ध का हेतु है" इस कथन से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन के समान सम्यग्ज्ञान का महत्त्व चारित्र पालन
दर्शन और चारित्र के समान ही ज्ञान का महत्त्व है। यदि दर्शन और में है, क्योंकि सम्यक्चारित्र में सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है।
चारित्र से शून्य ज्ञान है तो उसका कोई अर्थ नहीं होता, क्योंकि जैसा कि पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा भी है
आचरणविहीन अनेक शास्त्रों का मर्मज्ञ विज्ञ भी संसार समुद्र से नहि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते। पार नहीं हो सकता। जैसे एक चक्र से रथ नहीं चल सकता, एक ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात्॥३८॥
पंख से पक्षी आकाश में उड़ नहीं सकता, वैसे ही अकेले ज्ञान से अर्थात्/अज्ञानपूर्वक चारित्र सम्यक्भाव/समीचीनता को मुक्ति लाभ हो नहीं सकता। ज्ञान के साथ चारित्र होगा तभी मुक्ति निश्चयरूप से प्राप्त नहीं होता है, इसलिए चारित्र का आराधन ज्ञान मिलेगी। वास्तविक ज्ञान आचरण में मूर्त रूप लेता है, जो ज्ञान के पश्चात् करने को कहा गया है। ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया ही
चारित्र में नहीं बदलता, केवल तत्त्वचर्चा एवं वाद-विवाद या कार्यकारी है। अज्ञानी की क्रियाएँ तो बन्ध की ही कारण हैं। इस
उपदेश तक ही सीमित रहता है, वह साध्य की सिद्धि करने वाला विषय में आचार्य शुभचन्द्र ने बहुत अच्छा कहा है-संसार में जिस
नहीं होता। ज्ञान के साथ चारित्र का सुमेल ही साधना करानेवाला मार्ग से अज्ञानी संचार करता है, उसी मार्ग से तत्त्वज्ञ भी संचार
और मुक्तिरमा का वरण कराने वाला होता है। अत: यह निश्चय से करता है, फिर भी अज्ञानी जीव अपने को कर्म से लिप्त करता है
जानना चाहिए कि चारित्र परमसाध्य की सिद्धि के लिए आवश्यक और ज्ञानी अपने को कर्म से मुक्त करता है। हाँ, ज्ञानी और अज्ञानी ही नहीं अपितु अनिवार्य है। के आचरण में समानता के होने पर भी ज्ञानी का वह आचरण
उपाचार्य (रीडर) संस्कृत विभाग विवेकपूर्वक होने से संवर और निर्जरा का कारण होता है तथा
दिगम्बर जैन कॉलिज, बड़ौत
आदर्शकथा
न्याय की तुला
इंगलैण्ड की बात है । वहाँ उस समय चतुर्थ हैनरी राज्य करता था। पाँचवाँ हैनरी युवराज के पद पर था। एक बार युवराज का नौकर किसी अपराध में पकड़ा गया और युवराज के उसे छुड़ाने का प्रयत्न करने पर भी उसको दण्डित कर दिया। इस पर युवराज क्रुद्ध होकर अदालत गया, लेकिन न्यायाधीश ने कहा, "अगर आप नौकर को छुड़ाना ही चाहते हैं, तो सम्राट् से क्षमा की प्रार्थना कीजिये। मैं इसे नहीं छोड़ सकता।"
यह सुनकर युवराज आग-बबूला हो गया और अपराधी को जबरदस्ती छुड़वाने के लिए आगे बढ़ा। उसकी इस हरकत पर न्यायाधीश ने उसे अदालत से बाहर निकल जाने का आदेश दिया।
अब तो युवराज आपे से बाहर हो गया। वह न्यायाधीश की कुर्सी की ओर झपटा। लेकिन कुछ कदम बढ़ने पर सहसा रुक गया। न्यायाधीश बड़ी गंभीर और कठोर मुद्रा में उसकी ओर देख रहा था। उसने कहा, "युवराज, मैं न्याय के आसन पर बैठा हूँ। अत: न्याय की मर्यादा की रक्षा करना मेरा धर्म है। आपको भविष्य में जिस प्रजा पर शासन करना है, वह कानून का आदर करे, इसके लिए आपको स्वयं वैसा आचरण करना चाहिए। आपने कानून का उल्लंघन किया है और अदालत की तौहीन की है, इसलिए मैं आपको कैद की सजा देता हूँ।"
अब युवराज को होश आया। उसे अपने किये पर पश्चात्ताप हुआ और बिना आपत्ति किये वह जेल चला गया।
जब सम्राट को इसका पता चला, तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने कहा, "कानून की रक्षा करने वाला ऐसा न्यायाधीश जिस राज्य में है, वह वास्तव में सुखी है और वह राजा भी सुखी है, जिसका पुत्र कानून की अवहेलना करने पर दण्ड भरने के लिए जेल चला जाता है।"
यशपाल जैन
- अप्रैल 2003 जिनभाषित
17
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org