Book Title: Jinabhashita 2003 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ सम्यक्त्वमणि रानी रेवती : रानी रेवती धर्मपरायणा ऐसी रमणी प्रमुख है, जो श्राविका होते हुए भी साधुवर्ग में भी अपने विवेक और सद्ज्ञान के कारण प्रशंसित एवं चर्चित रहीं। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों की कथाओं में अमूढ़ दृष्टि अंग के विश्लेषण एवं विवेचन की कथा का केंद्र रानी रेवती ही हैं । रानी रेवती की उत्कृष्ट कथा का सारांश इस प्रकार हैएक बार क्षुल्लक चंद्रप्रभ तीर्थाटन की आज्ञा हेतु आचार्य जी से कहते हैं- "गुरुवर मैं यात्रा के लिए जा रहा हूँ, क्या आपको कुछ समाचार तो किसी के लिए नहीं कहना है ?" गुप्ताचार्य बोले- मथुरा में एक सूरत नाम के ज्ञानी और गुणी मुनिराज को नमस्कार और सम्यग्दृष्टिनी धर्मात्मा रेवती के लिए मेरी धर्मवृद्धि कहना । एक आचार्यश्री द्वारा एक श्राविका को धर्मवृद्धि क्षुल्लक जी के मन में रेवती के चरित्र की परीक्षण जिज्ञासा उद्भूत हुई। उन्होंने अपने विद्याबल से ब्रह्मा का रूप बनाया। कमल पर विराजमान ब्रह्मा के दर्शनार्थ सभी गए, लेकिन रानी नहीं गई, पति के बार-बार कहने पर भी रानी रेवती ने राजा से कहा- यह ब्रह्मा कोई धूर्त ही हो सकता है। जिस ब्रह्मा की वन्दना के लिए आप जा रहे हैं, वह ब्रह्मा नहीं हैं। ब्रह्मा इस प्रकार यत्र तत्र नहीं आ जाते। दूसरे दिन क्षुल्लक ने गरुड़ पर बैठे हुए चतुर्बाहु शंख, चक्र, गदा आदि से युक्त और दैत्यों को कंपाने वाले विष्णु भगवान् का रूप धारण कर दक्षिण दिशा में डेरा जमाया। रेवती ने तब भी उसके पास जाने से राजा को रोक दिया। स्वयं भी नहीं गई, क्षुल्लक की यह विधि भी निष्फल रही, चूँकि वह तो रेवती रानी की परीक्षा लेना चाहते थे । रानी के पति वरुण भी मायाजाल से प्रभावित हो गए थे। उन्होने रानी रेवती से कहा-रानी कल ब्रह्मा थे, नहीं गईं, आज तो चलो साक्षात् नारायण आ रहे है। रानी ने दो टूक उत्तर दिया- 'राजन ! यह भी कोई मायावी ही है। इसकी पूजा अज्ञानी और पांखडी ही करेंगे। यह केशव या नारायण नहीं है । हमारे आगम में बताया है कि नव नारायण पहले हुए हैं, वे अब यहाँ कहाँ से आयेंगे ?' रानी की बात सुनकर राजा आश्चर्य में पड़ गया। - क्षुल्लक रानी रेवती को आया हुआ न देखकर फिर निराश हुआ। तीसरे दिन उस बुद्धिमान क्षुल्लक ने बैल पर स्थित पार्वती एवं गणपति युक्त शिव का रूप धारण किया। रानी रेवती ने पुनः आगम प्रमाण देते हुए कहा हे राजन्! आगम में ग्यारह रुद्रों का वर्णन है। वे रुद्र आज से लाखों वर्ष पूर्व हो चुके हैं। इस काल में रुद्र नहीं आ सकते । यह कोई मायाधारी व्यन्तर या विधाधर ही | 18 अप्रैल 2003 जिनभाषित Jain Education International डॉ. नीलम जैन हैं। क्षुल्लक फिर मन मार कर रह गया। अगले दिन उसने अष्टप्रातिहार्यों से युक्त समवशरण बनाया और भगवान् महावीर का रूप धारण किया। भगवान् के आगमन और समवशरण की बात राजा के कानों में भी पड़ी। इस बार फिर राजा ने सहजता से कहा " रानी ! अब तो चलो इष्ट देव वर्द्धमान स्वामी का समवशरण आया है, अतः आप दर्शन हेतु चलें।" रानी ने अब पूर्णतया दृढ़ता से कहा- "राजन! कैवल्य श्री को प्राप्त किए हुए जिनेन्द्र इस काल में कहाँ से आयेंगे ? जो भगवान निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं, वे पुनः धरा पर नहीं आ सकते।" आज राजा को रेवती रानी के वचनों ने निरुत्तर कर दिया। वह भी सोचने लगे बात तो ठीक है, वास्तव में २५ वाँ तीर्थंकर कहाँ से आयेगा? राजा फिर ऊहापोह में पड़ जाते हैं। कहते हैं- "सभी लोग मिथ्या दृष्टि हैं । सब तो इन्हें महावीर समझ कर पूजा कर रहे हैं।" "स्वामिन् जैसे सभी पुष्पों में फल नहीं लगते सभी वृक्ष चन्दन नहीं होते, सभी नारियाँ सती नहीं होतीं इसी प्रकार सभी व्यक्ति समयग्दृष्टि नहीं होते। जिसे देव शास्त्र, गुरु का सच्चा श्रद्धान है, वह कभी कपट-जाल में नहीं फँस सकता," रेवती ने विनम्रतापूर्वक कहा। राजा प्रजा सभी इस तीर्थंकर के पास श्रद्धापूर्वक गए लेकिन सम्यक् भाव से भूषित रानी रेवती ने दृढ़ता पूर्वक कह दिया- "तीर्थंकर चौबीस ही हुए हैं, चौबीस ही होंगे और चौबीस ही हैं उनकी संख्या भंग करने वाले पच्चीसवें तीर्थंकर कहाँ से आ सकते हैं? यह कोई मायावी ऐन्द्रजालिक ही हो सकता है।" अब भी रानी को आता हुआ न देख क्षुल्लक रानी की स्थिरप्रज्ञता को समझ गया। अब उसने अपनी माया समेटी और यथावत् क्षुल्लक का रूप धारण किया। रानी ने अब उसके क्षुल्लक रूप को भली भांति निरखा परखा और सही समझकर उसका पड़ गाहन किया तथा चौके में ले गई। क्षुल्लक ने रानी को सम्यदृष्टि समझा तथा अपना वास्तविक रूप प्रकट कर मुनि गुप्ताचार्य का आशीर्वाद कहा। अन्ततः क्षुल्लक ने अनेक प्रकार की व्याधियों से युक्त अत्यन्त मलिन वेश बनाया और रेवती के घर भिक्षा हेतु पहुँचे। आँगन में पहुँचते ही वे मूर्च्छित हो गए। उन्हें देखते ही धर्मवत्सला रेवती बड़ी भक्ति और विनय पूर्वक परिचर्या में लीन हो गई और प्रासुक आहार कराया। क्षुल्लक को अब भी सन्तुष्टि नहीं हुई और उन्होंने वहीं अत्यधिक दुर्गन्ध युक्त वमन कर दिया। क्षुल्लक जी की यह स्थिति देख रेवती द्रवित हो गई। उसने यही पश्चाताप किया कि मेरे द्वारा आहार में असावधानी हो गई है। पश्चाताप के अश्रु बहाती हुई रेवती ने उनका शरीर पौंछा, गरम जल से साफ किया। उनकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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