Book Title: Jinabhashita 2003 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 3
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य मैं" जिनभाषित " पत्रिका का प्रारम्भ काल से ही नियमित पाठक रहा हूँ। यह पत्रिका समाज को दिशा देने के साथ-साथ युवा वर्ग को भी अपने धर्म व गुरुओं की जानकारी उपलब्ध कराकर उन्हें जिन धर्म को जानने समझने की जानकारी उपलब्ध करा रही है। "जिनभाषित " पत्रिका जनवरी २००३ का अंक देखनेपढ़ने-समझने में आया। पाठकों के पत्रों में पं. सुनील जी शास्त्री, आगरा का पत्र एवं आपका सम्पादकीय निश्चय ही सोचनेविचारने पर मजबूर कर देता है। सम्पादकीय के पैराग्राफ नं. ८११ तथा १२ पर जहाँ आपने बीमारी की ओर दृष्टि की है वहीं आपने इसका कारण क्या है, इस पर भी जोर दिया है। वास्तव में आर्यिकाएँ आदि मुनिसंघों के साथ रहनी ही नहीं चाहिये। १०८ मुनिश्री निर्णयसागर जी ने "प्रतिमा विज्ञान और उसके लाभ " में जो समाधान दिये हैं वे समाधान कारक हुए हैं । अन्य लेख भी पठनीय हैं अच्छी पत्रिका के लिये धन्यवाद । पं. तेजकुमार गंगवाल १०/२, रामगंज (जिन्सी) इन्दौर- ४५२००२ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के श्रीमुख से कहे प्रेरक वचनों यथा "बार्डर पर आर्डर की प्रतीक्षा करने वाले जवान भी धर्मज्ञानी हैं, उन्हें भी देशरक्षार्थ धर्म लाभ मिलता है, ऐसे वीर सपूतों का बलिदान राष्ट्र, प्रदेश तथा समाज को याद रखना चाहिए एवं उनके प्रति सद्भावना एवं कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए।" ऐसे अमृतवचन सुनकर हमारे मित्र श्री वीरेन्द्र गाँधी जिनके वीरपुत्र केप्टिन श्रेयांस गाँधी जो अल्प आयु २६ वर्ष में ही देशरक्षा करते हुए रंजीतपुरा सेक्टर बीकानेर राजस्थान सीमापर विगत ०७ जनरवरी को बारूदी सुरंग हटाते हुए शहीद हुए हैं, उनके परिजन एवं मित्र आचार्यश्री के स्नेहाशीष से धन्य हुए हैं। भारतीय सेना में प्रथम सबक के रूप में पढ़ाया जाता है कि " If we Don't come Back, tell them, for their better Tomarrow we gave our today. देश पर मर मिटनेवाले सपूतों की याद में किसी शायर ने कहा है फरवरी २००३ के अंक में परमपूज्य मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज का लेख 'धर्म-जीवन की धुरी' वास्तव में धर्म की आत्मा से स्वयं की आत्मा को अंगीकार करने वाला लेख है । मेरी दृष्टि बचपन से एक स्वच्छ आलोचक की रही हैं। इस कारण मुझे कमियाँ स्वतः ही नजर आ जाती हैं। मैं आपकी पत्रिका में कमियाँ न देखते हुये एक सुझाव जरूर देना चाहूँगा। मैंने जिनभाषित के प्रत्येक अंक में आवरण सज्जा सर्वोत्तम देखी है आवरण पृष्ठ के चित्र को देखकर उसके बारे में जानने की इच्छा स्वतः ही हो जाती है। इस दृष्टि से आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप कृपया अपने जिनभाषित के आगामी अंक में उक्त कमी को दूर करने का प्रयास करेंगे एवं मेरे सुझाव को पत्रिका में स्थान देंगे। जिनेन्द्र घुवारा घुवारा सदन, टीकमगढ़ (म.प्र.) आपके कुशल संपादन से सज्जित पत्रिका जिनभाषित का प्रत्येक अंक पठनीय / मननीय एवं संग्रहणीय है । आपके द्वारा लिखा संपादकीय एवं श्री जुगलकिशोर मुख्तार के लेख चेतना को हिला कर झकझोर देते हैं और सोचने को मजबूर कर देते हैं। कृपया इस तरह के लेख निर्भीकता से छापा करें । क्योंकि यह सत्य है कि १० सच्चे मुनीश्वर जितनी प्रभावना करते हैं, एक विकृत भाववाला मुनि उतनी अप्रभावना कर देता है । आजकल एस.टी.डी. फोन के कारण किसी के मरण होने पर रिश्तेदारों के इंतजार में अधिक समय तक मृत शरीर को रखने की परंपरा बढ़ती जा रही है। कृपया इस पर भी पत्रिका के माध्यम से अपनी सलाह देवें कि ऐसा करना ठीक नहीं है और मरण होने पर कितने समय पश्चात् सूक्ष्म जीव उत्पन्न होने लगते हैं इस पर भी पत्रिका में जानकारी मिलनी चाहिए। जिस भी तीर्थ क्षेत्र की फोटो मुख पृष्ठ पर प्रकाशित की जावे, उसके बारे में विवरण अवश्य ही उसी अंक में दिया जावे। यदि आप धार्मिक वर्ग पहेली को पत्रिका में स्थान देना चाहते हों, तो कृपया सूचित करें, हम निःशुल्क वर्ग पहेली बनाकर भेजने के लिए तैयार हैं। उपेन्द्र नायक, रानीपुरा (झाँसी) Jain Education International शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले । वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा ।। आचार्यश्री के अमृत वचनों से, आत्मीयता एवं शीतलता से हम सभी परिजन / मित्रजन अभिभूत हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि दिवंगत आत्मा को शान्ति प्राप्त हो। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में वारंवार वंदना । एस. एन. जैन, पारिवारिक मित्र, अपेक्स बैंक, भोपाल "जिनभाषित " फरवरी ०३ अंक प्राप्त हुआ। पत्रिका अपने प्रगति पथ पर निर्बाध गति से बढ़ती हुई लोकप्रियता के चरम का स्पर्श कर रही है। इसमें प्रकाशित समस्त लेख अपने आप में चिन्तनीय, अनुकरणीय एवं समसामयिक होते हैं 1 'जिनभाषित' का प्रत्येक अंक हर समय प्रासांगिक रहने अप्रैल 2003 जिनभाषित 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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