Book Title: Jinabhashita 2003 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ 4 मुनि- हमारे यहाँ जिस पानी की जिवानी होती है वह लेने । आरंभ का त्याग करना आरंभ त्याग प्रतिमा है। वस्त्रों को छोड़कर योग्य पानी कहा है। नल, हेंडपंप से पानी के जीव पानी के ऊपर | शेष परिग्रह का त्याग करना परिग्रह त्याग नामक नौवीं प्रतिमा आते-जाते ही मर जाते हैं। जहाँ पानी छानने का कथन है, वहाँ से जानो। घर में रहकर भी किसी के द्वारा पूछने या बिना पूछे गृह विशेष समझ लेना। व्यापार सम्बन्धी अनुमति नहीं देना अनुमति त्याग नामक दसवीं श्रावक-प्रतिमाधारी श्रावक दवाइयाँ प्रयोग कर सकता है? | प्रतिमा है। जिन्होंने अभी तक निमंत्रण पूर्वक थाली गिलास आदि मुनि - शुद्ध दवाइयाँ जो अहिंसक रीति से बनी हों, वही अनेक बर्तनों में भोजन किया था। किन्तु अब मन वचन काय कृत ले सकते हैं। आज कल दवाइयों में मांस, खून का भी प्रयोग होने | कारित अनुमोदना इन नौ प्रकार से शुद्ध अनुद्दिष्ट आहार भिक्षा लगा है। इसलिए जानकारी करके ही दवाएँ ग्रहण करें। पूर्वक ग्रहण करते हैं तथा जो हाथ में या कटोरे में आहार करते हैं। श्रावक- महाराज ! घर त्याग कौन सी प्रतिमा में होता है? | वह उद्दिष्ट त्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा है। ग्यारहवीं प्रतिमा मुनि - ग्यारह प्रतिमा में नियम से ग्रहत्याग जरूरी है, पर धारक ऐलक मात्र लगोंट पहनते हैं, नियम से केशलोंच और हाथ इसके पहले भी ग्रह त्याग कर सकते हैं, किन्तु अनिवार्य नहीं है। | में आहार करते हैं। किन्तु क्षुल्लक एक दुपट्टा रखते हैं। कैंची से भी श्रावक- पहली प्रतिमा का क्या स्वरूप है? बाल बनवा सकते हैं । क्षुल्लिका एक साड़ी और एक दुपट्टा रखती मुनि - आपको सभी प्रतिमाओं के संबंध में संक्षेप में बता | है। देता हूँ। पहली प्रतिमा में सप्तव्यसन त्याग, अष्टमूलगुण सहित श्रावक- महाराज श्री! सचित्त पदार्थों को प्रासक कैसे अहिंसा, सत्य, अर्चीर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पांच अणुव्रतों का | बनाते हैं? पालन करते हुए, जो सच्चे देव शास्त्र गुरु की ही उपासना करते हैं | मुनि - प्रासुक के संबंध में आहार शुद्धि के प्रसंग में पहले अर्थात् शुद्ध सम्यक् दर्शन से युक्त हैं, वह प्रथम दर्शन प्रतिमाधारी | ही अच्छी तरह बताया है, वहाँ से समझ लेना। श्रावक है। जो अणुव्रतों को पहले सदा, पालन करते थे किन्तु | श्रावक- हमने पंडित जी के प्रवचन में सुना था, कि दूसरी व्रत प्रतिमा में उनको निर्दोश पालन करते हैं। उनको निर्दोष | सबसे सम्यग् दर्शन का पुरुषार्थ करना चाहिए? रखने के लिए दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदंड त्यागवत ये तीन गुणव्रत मुनि- इसमें एकांत नहीं है। धवला पुस्तक पांच में आचार्य तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग तथा भोगोपभोग महाराज कहते हैं कि अनेक जीव अणुव्रतों या महाव्रतों के साथ ये चार शिक्षाव्रत ये (सातशील) भी पालन करना होता है। प्रतिक्रमण | या बाद में भी सम्यग् दर्शन प्राप्त करते हैं। अपनी शक्ति अनुसार में सामायिक, भोगोपभोग, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना यह व्रत लेने से सम्यग् दर्शन और आसान हो जाता है। इसलिए व्रत चार शिक्षाव्रत कहे हैं। आगे की प्रतिमाओं में इन्हीं बारह व्रतों को | लेना किसी प्रकार व्यर्थ नहीं है। दूसरी तरफ जो अपने आपको विशेष रूप से पालना होता है। जो तीनों समय 48-48 मिनट कम सम्यग् दृष्टि अनुभव करते हैं, उनको भी चरित्र धारण कर पुरुषार्थ से कम नियम से सामायिक करते हैं। वे तीसरी सामायिक प्रतिमाधारी करना चाहिए। मात्र सम्यग् दर्शन से या मात्र सम्यग् ज्ञान से या हैं। बस रेल आदि में यात्रा करते समय सामायिक नहीं मानी जा | मात्र चरित्र धारण से मोक्ष न होगा। तीनों ही आवश्यक हैं। जो सकती है। क्योंकि क्षेत्र सीमा का परिमाण नहीं बन सकता है। ऐसा कहते हैं कि पहले सम्यग्दर्शन ही होना चाहिए, उन्हें अभी सामायिक प्रतिमाधारी को इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए। | आगम का पूरी तरह सही ज्ञान करना चाहिए। प्रत्येक मास में दो अष्टमी, दो चतुर्दशी चे चार पर्व आते श्रावक - हम तो व्रती बनना चाहते हैं, पर डर लगता है हैं। उन चारों पर्यों में सभी आरंभ, परिग्रह से मुक्त होकर धर्म | कहीं व्रत भंग हो गये तो। ध्यान करते हैं तथा पर्व के आगे पीछे के दिन एक समय आहार | मुनि- भैया! जब बस में बैठते हैं तो डर नहीं लगता, जल व पर्व में उपवास करते हैं। वह उत्कृष्ट प्रोषध है इसे | कहीं दुर्घटना हो गयी तो। जब व्यापार करते हैं तो डर नहीं लगता प्रोषधोपवास भी कहते हैं । पर्व के आगे पीछे एक ही समय आहार | कि कहीं घाटा हो गया तो, जब ऑपरेशन कराते हैं तो डर नहीं जल व पर्व में एक बार जल ग्रहण करते हैं वह मध्यम प्रोषध है। लगता कि कहीं मृत्यु हो गयी तो, किन्तु व्रत लेने में डर क्यों? व्रत तीनों दिन एकासन करना जघन्य प्रोषध है। जबकि दूसरी प्रतिमा धारण से कभी नहीं डरना चाहिए इसके बिना कल्याण न होगा। में पर्व के दिन ही एकासन आवश्यक है, सामयिक भी तीनों समय श्रावक - महाराज जी! पंचमकाल में तो मोक्ष है ही आवश्यक नहीं है। पाँचवी सचित्त त्याग प्रतिमा है इसमें अचित्त | नहीं, फिर अभी से व्रत क्यों धारण करें। (प्रासुक) पदार्थों को ही सेवन किया जाता है। रात्रि भोजन त्याग । मुनि- तुम्हारा कथन सत्य है किन्तु पंचमकाल में भी वृतों पहले भी था, परन्तु अब जो मन वचन काय कृत कारित अनुमोदना | के दो लाभ हैं। व्रतों को अच्छी तरह पालन करने से दुर्गति इन नौ प्रकार से रात्रि भोजन का तथा दिन में स्त्री सेवन का त्याग | (नरक, तिर्यंचगति) के अपार कष्टों से बच सकते हैं। तथा व्रतों करता है वही छठीं रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। पूरी तरह | के द्वारा अच्छी सल्लेखना कर लेते हैं तो जघन्य से दो तीन भव या ब्रह्मचर्य से रहना, सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। कृषि व्यापार आदि | उत्कृष्ट से सात आठ भव में मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। पंचमकाल 6 जनवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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