Book Title: Jinabhashita 2003 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ बालव्रत संरक्षिका : अनन्तमती - डॉ. नीलम जैन, अनन्तमती नाम है उस अनन्य बुद्धिमती महिला का जिसके । बचाती हुई पर्वत नदियाँ लांघती हुई अयोध्या नगरी पहुँची और अन्तरंग में बाल्यकाल से प्रज्वलित है तप संयम और विवेक की | यहाँ उसे पद्मश्री आर्यिका के दर्शन हुए। ज्योति । माता-पिता द्वारा सहज भाव से मुनिराज के सान्निध्य में इधर अनन्तमती के पिता भी पुत्री वियोग में सन्तप्त हृदय गृहीत ब्रह्मचर्य व्रत को जीवन का अभिन्न अंग बनाकर तथा परीक्षाओं को सान्त्वना देने के उद्देश्य से तीर्थाटन करते हुए अयोध्या नगरी की कठोर वेदनाजन्य कसौटी पर सर्वथा शुद्ध रहकर जिसने अपने में अनन्तमती के मामा के यहाँ ठहरे हुए थे। वहाँ आहार हेतु पूरे इहलोक और परलोक को अलंकृत कर जीवन धन्य किया। चौक को देखकर उन्हें अनन्तमती का स्मरण हो गया और तत्काल चम्पापुर नरेश प्रियदत्त एवं रानी अंगवती की राजपुत्री ही खोज बीन करने पर अनन्तमती से मिलन हुआ। पिता के हृदय अनन्तमती अष्टान्हिका पर्व में पिताश्री की अनुज्ञा से भी धर्मकीर्ति में वात्सल्य जागृत हुआ और अनन्तमती से घर चलने का आग्रह मुनिराज से ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लेती है। पिता बाल्यकाल किया लेकिन अनन्तमती ने पग-पग पर संसार की कालिमा का में मात्र आठ दिवस के लिए स्वीकार किए व्रत को विस्मृत कर प्रत्यक्ष दर्शन किया था ऐसे दुष्ट संसार से अब उसे वैराग्य आ गया जाते हैं पर अनन्तमती का अन्तरंग विवेक बार-बार उनके चितवन | था उसने समस्त मोह जाल छिन्न विछिन्ना करके वरदत्त मुनिराज को प्रश्नचिह्नित करता है यदि ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है तो फिर आठ दिन की शिष्या पद्मश्री (कमलश्री) आर्यिका से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली ही के लिए क्यों? जीवन भर के लिए क्यों नहीं? पिता सर्वथा | तथा नि:काक्षित हो व्रत का पालन करने लगी। उसके मन में अनभिज्ञ थे पुत्री के मानस हेतु दृढ़ता से युवती होते ही सुयोग्य वर किसी भी प्रकार का प्रलोभन, वाच्छा, आकांक्षा नहीं थी। परमागम के चयन हेतु प्रभावरत हो जाते है तथा सहज भाव से अनन्तमती | का ध्यान करती हुई अनन्तमती आत्मचिन्तनरत हो गई। के सम्मुख भी जब प्रसंग आया तो अनन्तमती के तर्क और दृढ़ता अनुशासन बद्ध, दृढ़ता और धर्मपरायणता उसने जीवन को देख माता-पिता निरूपाय हो गए। लावण्यमती पुत्री ने जीवन | भर श्रम द्वारा सीखा था। अन्तरात्मा ने ही स्मरण कराया कि भर के लिए ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया और धर्मसाधना को भौतिक सुख और पारलौकिक सुख एक साथ नहीं रह सकते। जीवन का लक्ष्य बनाया। अनन्तमती धर्म में लीन थी इधर पूर्वकृत | उनका मन अपने वर्तमान अवस्था पर वितृष्णा से भर गया था और पापकर्म अपनी लीला दिखाने हेतु आतुर ! एक दिन बगीचे में उन्होंने निश्चय कर लिया था कि अब वह अपना जीवन झूला झूलती अनन्तमती का अपहरण कुण्डल मण्डित नामक आत्मकल्याण हेतु ही समर्पित करेगी। इस दृढ़ संकल्प का उन्होंने विद्याधर कर लेता है। किन्तु पत्नी के द्वारा प्रताड़ित एवं धिक्कारे इतनी क्षमता से पालन किया कि शारीरिक कष्ट, मारना ताड़ना का जाने पर उसे पर्णलध्वी नामक भयंकर अटवी में छोड़ देता है। भी उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। जीवन के दुर्गम और रेतीले कर्मों का दुष्चक्र तो अभी प्रारंभ ही हुआ था पुन: भीलराज के रूप | बंजर में भी आध्यात्मिकता का स्त्रोत उसे रसाक्ति कर गया वह में दुर्देव सम्मुख आ खड़ा होता है। भील अपनी कामुकता प्रकट उन्नत आध्यात्मिक जीवन के लिए तत्पर हो गई। यही कारण है करता है किन्तु शील के अखण्ड बल से वनदेवी अनन्तमती की कि उनका जीवन विशुद्धता नि:स्वार्थता और आत्मबलिदान के रक्षा करती है। देवी के डर से भील राज ने अनन्तमती को साहूकार | रूप में अद्यतन हमारे सम्मुख प्रेरक रूप में प्रस्तुत हैं। के हाथों सौंप दी लेकिन पुष्पक सेठ भी था तो पुरुष ही- उस ध्यान और तपस्या द्वारा व्रत रूपी कवच को धारण कर अनिन्द्य सुन्दरी को देख वह भी विवेक खो बैठा अब अनन्तमती | भेद-विज्ञान रूपी शस्त्रों से कर्मों को परास्त करने लगी। उग्र का नारीत्व और शौर्य जागृत हो उठा उसने पुष्पक सेठ को अपनी | तपश्चणरत अनन्तमती अन्त में सन्यासमरण कर बारहवें स्वर्ग में वचन ज्वाला से ऐसा भस्मीभूत किया कि वह तत्काल उसे बला | देव हुई और अठारह सागर की आयु प्राप्त की। अनन्तमती की यह समझ स्वयं को बचा गया पर उसको एक कुट्टिनी की काली कथा भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतम ने राजा श्रेणिक को कोठरी में डाल आया। कुट्टिनी कामसेना ने भी अनन्तमती को | आनन्दपूर्वक सुनाई तथा सच्ची सम्यग्दृष्टि अनन्तमती सम्यग्दर्शन विपरीत देखकर अत्याचार प्रारंभ तो किए परन्तु उसे अप्रभावी के द्वितीय अंग निकांक्षित अंग की प्रतिरूपा बनकर स्मरणीय बन देख हार गई और राजा सिंहराज को सौंप आई जैसे ही उस पापी | गई। सम्यक् दर्शन के आठ अंगों की प्रकाशिका एवं विवेचिका सिंहराज ने भी अपने अपवित्र हाथों को बढ़ाया तभी वनदेवी ने | कथाओं में अनन्तमती का जीवनवृत श्रद्धासहित स्मरण किया प्रकट होकर उसे ललकारा और उसके पापकर्मों का उचित दण्ड | जाता है। विपत्तियों के मध्य प्रकृत्या कोमल बालिका का कठोर देकर अन्तर्निहित हो गई। उसने तत्काल नौकर द्वारा अनन्तमती | संकल्प एवं वज्रमय चरित्र नम्रीभूत कर देता है। अनन्तमती को जंगल में छुड़वा दिया। अनन्तमती अपने कौमार्य धन को | अनन्तरूपा विराट होकर अग्रणी हो जाती है। ब्रह्मचर्य की सच्ची 16 जनवरी 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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