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संतोष व समताभाव से आध्यात्मिक विकास । आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की संभव
जन्मस्थली में भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ___ 'संतोष व समताभाव से ही आध्यात्मिक विकास संभव
महोत्सव है' ये वक्तव्य मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज ने श्री दिगम्बर जैन
दिगम्बर जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज की श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के छात्र विद्वानों को सम्बोधित
जन्मभूमि सदलगा में नवनिर्मित "श्री दिगम्बर जैन मंदिर" का करते हुये दिया। मुनिश्री ने आगे कहा कि भौतिक सुख के लिये व्यक्ति अथक परिश्रम करता है, जिसका आध्यात्मिक जीवन में
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव संतशिरोमणि आ. 108 श्री कोई अस्तित्व नहीं। व्यक्ति को अपनी बुद्धि के विकास के लिये
विद्यासागर जी महाराज के संघस्थ मुनियों एवं आर्यिकाओं के सारभूत तत्त्वों को ग्रहण करना चाहिये। मुनि श्री भव्यसागर जी
| सान्निध्य में दिनांक 2 फरवरी से 8 फरवरी 2003 तक बालब्रह्मचारी महाराज ने अपने सम्बोधन में कहा कि हमें धर्म और संस्कृति की | श्री प्रदीप जी अशोक नगर के प्रतिष्ठाचार्यत्व में सम्पन्न होने जा रहा रक्षा के लिये यदि अकलंक-निकलंक की तरह कष्ट सहने पड़ें तो | है। भी पीछे न हटें। कार्यक्रम के प्रारंभ में राकेश जैन एवं छात्रों ने
| महोत्सव स्थल - हाईस्कूल मैदान, सदलगा, तालुकामगलाचरण किया। चिंतामणि बज ने द्वीप प्रज्वलन किया एवं ब्र. ।
| चिकौड़ी जिला-बेलगाम (कर्नाटक) 591239 संजीव कटंगी ने "जाते हो तो ले चलो हमको अपने साथ" सुंदर
सम्पर्क सूत्र : 1. पंचकल्याणक महोत्सव समिति भजन प्रस्तुत किया एवं संस्थान के अधिष्ठाता श्री रतनलाल बैनाड़ा ने संस्थान की गतिविधियों से सभी को अवगत कराया। कार्यक्रम
श्री 1008 शांतिनाथ दि. जैन मंदिर का संचालन डॉ. शीतलचन्द्र जैन ने किया।
उपाध्यक्ष- श्री सुरेन्द्र अप्पन प्रधान आलोक जैन बिरधा
जनरल मैनेजर- सदलगा अरबन बैंक श्री दि.जैन श्रमण संस्कृति
फोन : घर 0831-651678 कार्या. 651730 संस्थान सांगानेर, जयपुर (राज.) ।
जिनवाणी/ आगम
बहुत नहीं बहुत बार पढ़ने से ज्ञान का विकास होता है। विनय से पढ़ा गया शास्त्र विस्मृत हो जाने पर भी परभव में केवलज्ञान का कारण बनता है। तत्त्व चिंतन एक ऐसा माध्यम है जो सभी चिन्ताओं को मिटाकर जीवन में निखार लाता है। समयसार को कंठस्थ करने की जरूरत नहीं, बल्कि हृदयस्थ करने की जरूरत है। इस प्रचार-प्रचार के युग में कागजी फूलों से ही खुशबू नहीं आने वाली, न ही कागजी दौड़ से हम मंजिल को पा सकते हैं। खदान खोदने से सारे के सारे हीरे निकलते हैं ऐसा नहीं, बहुत सारा खोदने पर जब कभी एकाध हीरा मिल जाता है इसी प्रकार बार-बार ग्रन्थों का स्वाध्याय करने पर एक अलग ढंग से सोचने का रास्ता बनता है, कुछ न कुछ नया प्राप्त होता है। ग्रन्थों का पठन पाठन मात्र ही कल्याणकारी नहीं है, क्योंकि वह तो शब्द ज्ञान ही है, जिसे मूढ़ अज्ञ जन भी ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी कर सकते हैं। किन्तु शब्दों से अर्थ तथा अर्थ से परमार्थ की ओर हमारे ज्ञान की यात्रा होनी चाहिये। आप पुराणों को पढ़ना प्रारंभ कर दीजिये और उपन्यासों को लपेटकर रख दीजिये, नहीं तो उपन्यासों के साथसाथ आपका भी न्यास हो जायेगा। उपन्यासों को पढ़कर न आज तक कोई सन्यासी बना है
और न ही आगे बनेगा। हाँ..... उपन्यास की शैली में यदि हम पुराणों को देखना चाहें पढ़ना चाहें तो यह बात अलग है। उपन्यास की शैली से मेरा कोई विरोध नहीं लेकिन भावना दृष्टि और हमारा उद्देश्य साफ सुथरा होना चाहिये। जिनवाणी का कोई निर्धारित मूल्य नहीं होता, वह तो अनमोल वस्तु है, उसके लिये जितना भी देना पड़े कम
कभी भी जिनवाणी के माध्यम से अपनी आजीविका नहीं चलाना। जिससे रत्नत्रय का लाभ होता है, उसको क्षणिक व्यवसाय का हेतु बनाना उचित नहीं।
32 जनवरी 2003 जिनभाषित
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