Book Title: Jinabhashita 2003 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ इस सारे विवेचन से जो ऊपर दिगम्बर जैनों के आगम वाक्य उद्धृत किये गये हैं उनमें करीब-करीब सब ही विद्यानंद से सहमत नहीं मालूम होते, खासकर अकलंक और पूज्यपाद तो बिल्कुल ही विरुद्ध हैं। हरिवंशपुराण का कथन श्वेताम्बरों के सम्यक्त्व शल्योद्वार से कुछ समानता रखता है। हाँ, अलबत्ता सूत्रकार के वचन जरूर विद्यानन्द की तरफ झुकते ज्ञात होते हैं और श्वेताम्बरों के उक्त कथन के साथ तो विद्यानंद का अति साम्य है ही । किन्तु दि. जैन ग्रन्थों में ऐसा देखने में नहीं आता जिसमें विद्यानन्द की तरह क्षेत्र की हानि - वृद्धि का स्पष्ट उल्लेख हो विद्वानों का कर्तव्य है कि वे इस विषय के प्राचीन ग्रन्थ टटोलें । खोज करने पर जरूर कुछ इस विषय रहस्य का उद्घाटन होगा। विद्यानन्दजी के प्रवचनैकदेशस्य च तद्बाधकस्याभावात् " वाक्य से तो वैसा कथन मिलने की और भी अधिक सम्भावना है। स्वामी विद्यानन्द जी बड़े नैयायिक विद्वान् थे, इसलिये तर्क बल से वैसा कथन कर दिया होगा, ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है। विद्यानन्द जैसे एक ऊँचे आचार्य के प्रति वैसी भावना रखना एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य समझना चाहिये। किसी सम्यक् को धारण करो, मूल मंत्र यह जान । भव-भव के बंधन करें, ये ही तीर्थ महान ॥ पानी पीवो छानकर, रोग निकट नहीं आय। लोग कहें धर्मात्मा, जीव जन्तु बच जाय ॥ बीड़ी मदिरा पीवना नहीं भलों का काम । भंग आदि की लत बुरी, क्यों होते बदनाम ॥ सुभाषित जुआ खेलना मांस मद, वेश्या-गमन शिकार । चोरी परनारी रमण, सातों व्यसन निवार ॥ काम क्रोध मद लोभ से, हिय से अन्धे चार । नयन अन्ध इनमें भला, करे न पर अपकार ॥ मात-पिता की चाकरी, यह भी तीरथ जान । सुख पावे प्राणी सदा, सुनलो देकर कान ॥ 12 जनवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International सिद्धान्त की बात को स्वरुचि से निरूपण करना स्वयं विद्यानन्दजी ने अनादरणीय कहा है। यथा- "स्वरुचिविरचितस्य प्रेक्षवतामनादरणीयत्वात्' (श्लोकवार्तिक पू. 2 ) पुन: 'न पूर्वशास्त्रानाश्रयं यतः स्वरुचिविरचित्वादनादेयं प्रेक्षावतां भवेदिति यावत् (श्लोकवार्तिक पू. 2 ) जिन्होंने विद्यानन्दजी के ग्रन्थों का मनन किया है वे मानते हैं कि जिन शासन का जो कुछ भी गौरव है उसका श्रेय विद्यानन्द जैसे आचार्य महोदयों को ही है। अतः विद्यानन्द जी की कृति पर अश्रद्धा प्रकट करना निःसार है। बल्कि हमें तो उनसे अपने को धन्य समझना चाहिए कि ऐसे ऐसे तार्किक दिग्गज विद्वानों ने भी परमपावन जिनेन्द्र का आश्रय लिया है और जब कि विद्यानन्द स्वामी ने खुद अपने कथन को प्रवचन के एक देश से अबाधित लिखा है, तो फिर स्वरुचि रचना की कल्पना उठाने को स्थान ही कहाँ है ? For Private & Personal Use Only 'जैन निबन्धरत्नावली' से साभार संकलन : सुशीला पाटनी मधुर वचन ही बोलिये, करें सभी सम्मान । वशीकरण यह मंत्र है, निश्चय कर यह मान ॥ काम नित्य खोटे करे, खोजे सुख का मेल । फिरता चक्कर काटता, ज्यू घाणी का बैल ॥ भीतर से धर्मी बनो छोड़ो मायाचार। करनी - कथनी एक हो, यही धर्म का सार ॥ चक्रवर्ती की संपदा, इन्द्र सरिखे भोग। काक वीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग ॥ कर्तव्य सदा करते रहो, होनी है सो होय । मत झूठी चिन्ता करो, अंतर पड़े न कोय। आर. के. मार्बल्स लि., मदनगंज किशनगढ़ www.jainelibrary.org

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