Book Title: Jina Vachan
Author(s): Ramanlal C Shah
Publisher: Mumbai Jain Yuvak Sangh

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Page 9
________________ No. Verse 183. जहा किंपागफलाणं (उ. 19-17) 184. सल्लं कामा विसं कामा (उ. 9-53) 185. अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ (उ. 13-31) 186. असंखयं जीविय मा पमायए (उ. 4-1) 187. दुल्लहे खलु माणुसे भवे (उ. 10-4) 188. इह जीवियमेव पासहा (सू. 1-2-3-8) 189. सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी (उ. 4-6) 190. जावन्त ऽ विज्जापुरिसा (उ. 6-1) 191. पडिणीयं च बुद्धाणं (उ. 1-17) 192. चे केइ सरीरे सत्ता (उ. 6-11) 193. जरामरणवेगेणं (उ. 23-68) No. Verse 194. कसाया अग्गिणो वुत्ता (उ. 23-53) 195. निम्ममो निरहंकारो (उ. 19-90) 196. लाभालाभे सुहे दुक्खे (उ. 19-91) 197. परिजूरइ ते सरीरयं (उ. 10-21) 198. अबले जह भारवाहए (उ. 10-33) 199. कुसग्गे जह ओसबिन्दुए (उ. 10-2) 200. तिण्णो हु सि अण्णवं महं (उ. 10-34) 201. समं च संथवं थीहिं (उ. 16-5) 202. उपलेवो होइ भोगेसु (उ. 25-39) 203. लभ्रूण वि उत्तमं सुइं (उ. 10-17) 204. एवं भवसंसारे (उ. 10-15) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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