Book Title: Jina Siddhant
Author(s): Mulshankar Desai
Publisher: Mulshankar Desai

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Page 5
________________ * हो शब्द * वर्तमान में जो प्रणाली धर्म की चलती है, उसमें । विशेषकर निमित्त प्रधान ही दृष्टि रहती है । जब तक उपादान का ज्ञान द्रव्य, गुण, पर्याय का न होवे, तब तक सम्यग्दर्शन होना दुर्लभ है। समाज में श्रीमान् स्वर्गीय पं० गोपालदासजी वरैया की बनाई हुई जैन सिद्धान्त प्रवेशिका महान प्रचलित है । परन्तु उसमें पाश्रवादिक का स्वरूप प्रधानपने निमित्त की अपेक्षा से है, जिस कारण से श्रात्मा में भाव बंध किस प्रकार का हो रहा है, उसका ज्ञान होना दुर्लभ सा हो जाता है । जैसे समाज के विद्वान एक बार लिखते हैं कि लेश्या चारित्र गुण की पर्याय है, और दूसरी बार विद्वान लिखते हैं कि लेश्या वीर्यगुण की पर्याय है । यह क्यों होता है ? इसका इतना ही उत्तर है कि उसको आत्मा के द्रव्य, गुण, पर्याय का ज्ञान नहीं है। जिन-सिद्धान्त शास्त्र में प्रात्मा के द्रव्य, गुण, पोय का विशेष रूप से कथन के नाय में पांच भावों सं निमित्त का वर्णन किया गया है तथा जैन-सिद्धान्त प्रवेशिका का सम्पूर्ण समावेश इसमें किया गया है

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