Book Title: Jesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Author(s): Jambuvijay
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 631
________________ परिशिष्ट १२ : विशिष्ट प्रतियाँ जिनभद्रसूरि ताडपत्रीय तथा कागज के हस्तलिखित ज्ञानभंडार में विद्यमान विशिष्ट प्रतियोंकी | जानकारी पुण्यविजयजी के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर द्वारा सन् १९७२ में प्रकाशित जैसलमेर सूधिपत्र में अमृतलाल भोजक ने लिखि प्रस्तावनासे उद्धृत करके हिंदी अनुवाद करके अक्षरशा दी जाती है। "इसके अतिरिक्त जिसका अमुक दृष्टि से वैशिष्टय हो वैसी प्रतियों में से कितनीक उदाहरण दाखल यहां दी जाती है । (१) भगवतीसूत्रवृत्ति (जि.ता.ग्रंब्यांक १५) के पत्र अतीव सुकुमार है । (२) विक्रम संवत् १२०० में अजमेर का भंग हुआ था उस समय त्रुटित हुई पंचाशकप्रकरणवृत्ति (जि.ता.ग्रंथांक २०८) को श्री स्थिरचंद्रगणिने त्रुटित भाग पुनः लिखके संपूर्ण किया था । इससे जान सकते है की वि.सं. १२०७ में अजमेर का भंग हुआ था, और उस समय जैन शानभंडार को भी हानि पहुंची थी । विक्रम संवत् १९८० में लिखी पाक्षिकसूत्र सवृत्तिक (जि.ता.ग्रंथांक) की प्रति थोडे ही समयमें दीमक (उघई) लगने से या फट जाने से कीसी कलाकार ने उसे सावधानी से सिलाई करके तैयार की है । विशिष्ट रूप से सिलाई की गई प्रतियों में यह प्रति मुल्यवान दर्शनीय नमुने स्वरुप है । पैत्यवंदनभाष्य (जि.ता,पंचांक २००) पर देवेन्द्रसूरि रचित संघाचारटीका की प्रति टिकाकार की स्वयं की ही है । विक्रम संवत् ११९० के कार्तिक शुदि १ को रचित धर्मविधिप्रकरण की वि.सं. ११९० के पौष शुदि तीज के दिन लिखि प्रति का ग्रंथांक जि.ता.२३६ है । श्री नामकी सेठानी ने लिखवाई भवभावनावृत्ति की प्रति उपद्रव से खंडित हो गई थी उसे उन्हींकी प्रपौत्रवधूने समारकाम करके पूर्ण की थी । (देखो पु.सू में पृष्ठ ८४-८५ श्लोक २५ २६) इस प्रतिका ग्रंथांक जि.ता. २३१ है । (७) सिद्धसाधुरचित न्यायावतारवृत्ति (ग्रंथांक जि.ता.३६४/) की टिप्पणीयाँ भानश्री नामकी साध्वीजी महाराज ने की होगी ऐसा संभव है । प्रकरण-स्तोत्रादि के संग्रह रुप (जि.ता. ग्रंथांक १५४) वि.सं. १२१५ में लिखि प्रति शांतिमतिगणिनी की स्वाध्याय की पोथी थी, और सटीक पिंडविशुद्धिप्रकरण (जि.ता.थांक २१०) की प्रति प्रभावतिमहत्तरा की थी । विशिष्ट प्रतियाँ- परिशिष्ट १२-५८३ (९) कर्मप्रकृतिपूर्णि (जि.ता.ग्रंथांक १६९) की प्रति गच्छादि के दुराग्रह से या मालिकिहक्क के व्यामोह से प्रेरित होकर ग्रंथ लिखवाने वाले की पूधिका मिटा देने के नमुने रुप है । (१०) जि.ता, ग्रंथांक २३२ मवमावनावृत्ति की प्रति नन्नी-नानी श्राविका ने वि.सं. १२४० में लिखवाई और उसका व्याख्यान वि.सं. १२४०, १२४८ तथा १२५३ में 'पादरा' में करवाया था । इस ननी-नानी के बाद उनके सुकृत के लिये उनकी पुत्री जयती ने वि.सं. १२६५ में तिमिरपाटक में और वि.सं. १२८० में पंडित नेमिकुमार द्वारा इस ग्रंथ का व्याख्यान करवाया था । उसके बाद देवपत्तन से आकर जयती ने अभयकुमारगणि को यह ग्रंथ पादरा में समर्पित कीया । यह ग्रंथ नानी भाविकाने तीन बार पढ़वाया उसके बारे में नानी श्राविका की प्रशस्ति प्राकृत भाषा में है और उसकी पुत्री जयती की प्रशस्ति संस्कृतभाषा में है। लिखवाये ग्रंथों के व्याख्यान की हकीकत और ग्रंथ पढवाने की एवं उनका संशोधन करने की हकीकतों के उदाहरण अन्देवकों को पू.सू.' में से मिल सकेंगे । इसके अतिरिक्त इस भंडार की १२ वे शतक से पंद्रहवे शतक तक में लिखि प्रतियाँ लिखवाने वालों की प्रशस्ति-पुष्पिकाओं में तत्तत्कालिय राजवंशो, राजाओं, महामात्यों, पंचकुलों, दंडनायकों, श्रमणों के गणों-शाखाओं-गच्छों-परंपराओं, जैनाचार्यों आदि जैन विद्वानों, जैन गृहस्थ, उनके कुल-वंश-गोत्र और अटकों, अजैन विद्वानों, प्राचीन ग्रंथों और गांव-नगर आदि के नाम मिलते हैं, जिनको उनके सत्ता समय और प्राचीनता के प्रामाणिक आधार स्वरुप स्वीकार कर सकते है। ये महत्त्वपूर्ण बहुत से नाम प.स.' के तीसरे परिशिष्ट में से देख सकेंगे (ऐतिहासिक आधार के लिये ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है) प्रशस्ति-पुष्मिका में बताये हए जिनमंदिरनिर्माण आदि धर्मकत्य-एवं उक्त तीसरे परिशिष्ट पु.सु. में बताये हुए नामों में से कितनेक गाँव-नगर आदि के नाम वाचकों की जानकारी के लिये नीचे बताये जाते है । श्री जगडर श्रेष्ठी ने जैसलमेर में श्री पार्श्वनाथजिन का मंदिर बनवाया था । जिता. ग्रंथांक ११४, २१७, २७०, २७२ (विस्तृत जानकारी पु.सु) में से प्राप्त करे । श्री पञ्चदेव श्रेष्ठी ने नागपुरं (नागौर) के पास कुडिलुपुरीमें भव्य जिनालय बनवाया था देखो जि.ता.अथांक २१७ । वहाँ भगवान के नामवाला पन्ने का भाग टूट गया है । कुमारपल्ली (गुजरात-पाटण के पास कुणधेर) में श्री पार्थ नामके श्रेष्ठी ने श्री वीरजिन का चतुर्मुख (चौमुखजी का) प्रासाद (मंदिर) बनवाया था । देखो जि.ता. ग्रंथांक २३५ ४) भीमपल्ली (भीलडी-बनासकांठा) में श्री भुवनपाल नाम के श्रेष्ठी ने मांडलिकनिहार नामका श्री १. पु. सु.- सन् १९७२ में LOINSTITUTE OF NDOLOGY, ANAMEDABAD द्वारा प्रकाशित JEASALMERCOLLECTION सकलविता मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज, Jain Educato International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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