Book Title: Jainism vis a vis Brahmanism Author(s): Bansidhar Bhatt Publisher: Z_Nirgranth_Aetihasik_Lekh_Samucchay_Part_1_002105.pdf and Nirgranth_Aetihasik_Lekh_Samucchay_Part_2Page 24
________________ 24 Bansidhar Bhatt + . शरीरमिदं ... निरय एव... विण्मूत्र... मलै र्बहुभिः परिपूर्णमेतादृशे शरीरे.... + अस्थिस्थूणं... नरकेऽपि सः... + अत्यन्तमलिनो देह..... + अस्थिस्थूणं दुर्गन्धिपूर्ण मूत्रपुरीशय:... (MS 6.76 foll. + किमिच्छन कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत्... + (see also Samyuttanikāya 421. 20-21 ) (46) एस परिण्णा पवुच्चति कम्मोवसंती...से हु दिट्ठपहे मुणी... Cp.... कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः... (47) खेयण्ण निक्कम्म, eg. वीरे आतगुत्ते खेयणे.... Cp. प्रधान-क्षेत्रज्ञपति गुणेश:.... + यश्चेतनमात्रः प्रतिपूरुषं क्षेत्रज्ञ..... ...नैष्कर्म्य.... + + ... योऽकामः निष्कामः... ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति... (48) पासग, e. g. (Mt. Up. 1. 3 = 3. 4, also Mt. Up. 2. vss. 4-8). (Ndpv. Up. 3. 46-48) (Śjbl. Up. 1.21) == MBh. 12. 329. 42) (Bdā. Up. 4. 4. 12) (49) तस थावर, eg. किमत्थि उवधी पासगस्स ? ण विज्जति... (Ac. I. 131 = 146) (Ác. I. 80, 151) + उद्देसो पासगस्स नत्थि... Cp. न पश्यो मृत्युं पश्यति... सर्वं हु परमः पश्यति....सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षस्तस्मै मृदितकषायाय तमसस्पारं दर्शयति... + यदा पश्यः पश्यते...ईशं पुरुषम्... अदु थावरा य तसत्ता तसजीवा य थावरत्ताए... Cp. स्थातुश्चरथं भ्रमते... + पशुंश्च स्थातुंश्चरथं च पाहि... + जगतस्तस्थुषश्च.... + जगतस्स्थातुरुभयस्य... + सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च... (50) गंथ - गढिय, eg. Jain Education International एस खलु गंथे... एस खलु निरए, इच्चत्थं गढिए लोए... Cp. यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः.... + भिद्यते हृदयग्रंथि :... तस्मिन् दृष्टे परावरे.... + सोऽविद्याग्रंथिं विकिरतीह... Jambū-jyoti (Ac. I. 97) (Ch. Up. 6. 4) (Ac. I. 109 ) and निक्कम्मदंसी (Āc. I. 115, 145) (Sv. Up. 6.16) (Mt. Up. 2.5) see (Gt. 3. 4; 18. 49 ) (BdA. Up. 4. 4. 6) (Ác. I. 267) ( Rv. 1. 58.5) (RV. 1.72-76) (Rv. 1. 115. 1 = AV 13. 2. 35) (RV. 4. 53. 6) (Śv. Up. 3. 18) (Md. Up. 2. 2. 8) For Private & Personal Use Only (Ch. Up. 7.7.2) (Md. Up. 3. 1. 3) (Ốc. I. 14) (Kth. Up. 2. 6. 14) = SarR. Up. 32; Ygs Up. 5.45; Ap. Up. 4. 31) (Md. Up. 2. 1. 10) www.jainelibrary.orgPage Navigation
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