Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 9
________________ पूछा कि मुझे किसके सहारे छोड़ रही हैं। धर्म से ओत-प्रोत माता का उत्तर था-'अरिहंत की शरण'। ये शब्द छगनलाल की आत्मा से अविनाभाव संबंध से बद्ध हो गए और ८४ वर्ष की आयु के अंतिम क्षण तक छगनलाल अरिहंत के पादपंकजों में तल्लीन रहे। बालक गृहवास करता हुआ भी हृदय से संसार-विरक्त था। यही कारण है कि १७ वर्ष की आयु में उसने तत्कालीन जैन समाज के आध्यात्मिक नेता धुरंधर विद्वान् और विश्वविख्यात जैनमुनि श्री आत्माराम जी से 'आत्मधन' की याचना की। अनेक बाधाओं को पार करते हुए वि० सं० १९४४ में छगनलाल जैनमुनि के रूप में दीक्षित हुए और उनका नाम 'वल्लभविजय' रखा गया। नाम ऐसा गुणानुरूप सार्थक सिद्ध हुआ कि वे अपने आदर्श चरित्र, शासनसेवा, समाजसेवा और राष्ट्रसेवा के कारण जन-जन के हृदय के वल्लभ-प्रिय हो गए। साधु-जीवन में प्रवेश करते ही उन्होंने व्याकरण, साहित्य, दर्शन, आगम, न्याय, काव्य, धर्मशास्त्र आदि का अध्ययन किया और उच्चकोटि के प्रतिष्ठित विद्वान् बन गए । लगभग नौ वर्ष तक उन्हें श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर को छत्रछाया प्राप्त होती रही। वि० सं० १९५३ में इस महान् गुरु का स्वर्गवास हुआ । अंतिम समय में उन्होंने गुरुवल्लभ को सरस्वती मन्दिरों की स्थापना तथा पंजाब के जैनसंघों में धर्म संस्कारों को सुदृढ़ करने का सन्देश दिया। गुरुवल्लभ ने अपने गुरु की इन अभिलाषाओं को साकार रूप देने के लिए अपने समस्त जीवन की आहुति दे दी। वि० सं० १९८१ में लाहौर में उन्हें आचार्य पद से अलंकृत किया गया और वि० सं० २०११ में बंबई में चिरनिद्रा में लीन हो गए। शासनसेवा-जैन परम्परा में आचार्य का पद बहुत महत्त्वपूर्ण है। अरिहंत तीर्थंकर की सद्वाणी के प्रचार और उसके सम्यक् अर्थ का उत्तरदायित्व उन्हीं पर है। साथ ही चतुर्विध संघ के सन्मार्गदर्शन, नेतृत्व, धर्म में स्थैर्य आदि का भार भी उन्हीं के कंधों पर है। वे स्वयं शास्त्रज्ञ, साकार आचार, कुशल नेता, आदर्शरूप और लोकप्रिय होने चाहिए। शास्त्रों के अर्थ का चयन, आचार में उसका संस्थापन और स्वतः आचरण आचार्य के धर्म हैं। श्रीमद् विजयवल्लभ सूरि इस कसौटी पर पूरे उतरे। उन्होंने श्रद्धा को पुष्ट करने के लिए अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार कराया। कालकोठरी में बन्द सूर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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